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शिल्पी बोला- 'जो कुछ भी हो । यदि मैं इस अमूल्य निधि को किसी सुपात्र के हाथों सौंपता हूं तो मेरी साधना सफल होती है।'
शिल्पी के परिवार ने उसकी बात स्वीकारी और तीन गाड़ियों में सामान और सिंहासन लेकर पूरा परिवार अवंती की ओर चल पड़ा। शिल्पी-परिवार जब घर से चला, तब उत्तम शकुन हुए थे। सब प्रसन्न थे। नदी-नाले और पर्वतों को पार करते हुए वे पांच महीनों के कठिन प्रवास के पश्चात् अवंती नगरी में पहुंचे।
महाराजा विक्रमादित्य राजसभा में अवस्थित थे। वहां अनेक कलाकार, कवि, श्रेष्ठी उपस्थित थे। ऐसी राजसभा में कश्मीर प्रदेश से वह यंत्रशिल्पी आ पहुंचा। उसने देखा कि जो कुछ उसने सुना था, उससे अधिक नयनानन्दकारी हैं राजा वीर विक्रम और उनकी राजसभा। सामान्य कार्यवाही के पश्चात् यंत्रशिल्पी अमरदेव ने खड़े होकर महाराजा का अभिवादन किया। वह अभी पचास वर्ष की वय वाला था, फिर भी उसके केश श्वेत हो चुके थे। उसकी आंखों में विज्ञान का तेज था, फिर भी उसका मुख-कमल मुरझाया हुआ था।
महामंत्री भट्टमात्र ने उस अपरिचित परदेशी को देखकर कहा-'भाई, आगे आओ और अपना पूरा परिचय दो।'
यंत्रशिल्पी आगे गया और बोला-'मेरा नाम अमरदेव है। मैं कश्मीर प्रदेश से अपने परिवार को साथ लेकर यहां आया हूं। कृपानाथ! मैंने एक महान् वस्तु बनाई है। मनुष्यलोक में कहीं प्राप्त न हो सके, ऐसा देवदुर्लभ सिंहासन मैंने बनाया है। महाराज! इसकी निर्मिति में मैंने बारह वर्षों का भोग दिया है। मैं आपकी श्लाघा सुनकर यहां आया हूं।'
विक्रम ने कहा- 'मैं धन्य हुआ। आप-जैसे महान् शिल्पी मेरे राज्य में आएं, यह एक शुभ सूचना है।'
विक्रम का कथन सुनकर शिल्पी अमरदेव का हृदय बांसों उछलने लगा। उसने कहा-'राजन्! नगर के बाहर मैं एक सार्थवाह के साथ ठहरा हूं। आप आज्ञा दें तो मैं बारह वर्षों की अपनी साधना के विषय में कुछ कहूं?'
विक्रम बोले- 'आप अभी प्रवास से आए हैं। थकान है। राज्य के अतिथिगृह में रहें। फिर सारी बात कहना।'
मंत्री बुद्धिसागर ने शिल्पी के निवास की पूरी व्यवस्था की।
शिल्पी अत्यन्त प्रसन्न हो गया। उसने सोचा, राजा कितना महान् है। अभी तक इन्होंने सिंहासन की बात भी नहीं सुनी और मुझे इतना सम्मान दे रहे हैं।
तीन दिन बीत गए।
चौथे दिन विक्रम स्वयं अतिथि की सार-संभाल करने अतिथि-गृह में पहुंच गए। विक्रम को देखते ही शिल्पी अमरदेव विस्मित रह गया। उसने बत्तीस पुतलियों
वीर विक्रमादित्य १७७