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मिटा सकते हैं। आठ स्त्रियां पंखा झल रही हैं। सौ से अधिक भूत इधर-उधर खड़े हैं। अग्निवैताल ने जो बात विक्रम को कही थी, वह अक्षरश: सही थी। विक्रम बोला- 'महाराज! अब आप भोजन करें।'
बर्बरक भोजन करने लगा। उसने सारा भोजन उदरस्थ कर डाला। तत्पश्चात् विक्रम बोले- 'महाराज! आपके रोग-निवारण का उपाय मुझे मिल गया है। मैं बिना औषधि दिए आपको स्वस्थ करता हूं। जब आप दूसरी बार भोजन करने बैलें, तब आपके पास कोई भी व्यक्ति या रानी उपस्थित न रहे। यही मेरा उपाय है। यदि आपका रोग आज आधा कम हो जाए तो फिर आप प्रतिदिन एकांत में भोजन करते रहें, आप स्वस्थ हो जाएंगे।'
दूसरे दिन मध्यरात्रि में भोजन के समय बर्बरक ने विक्रम के कथनानुसार सबको अलग कर, एकांत में भोजन किया। उसके कोई पीड़ा नहीं हुई। वह रात में आराम से सोया।
प्रात:काल बर्बरक अत्यन्त प्रसन्नचित्त था। उसने विक्रम को बुलाकर कहा- 'वैद्य! तुम्हारा उपाय कारगर सिद्ध हुआ है। मैं औषधि का सेवन किये बिना ही स्वस्थ कैसे हो गया, यह समझ में नहीं आ रहा हैं'
विक्रम ने कहा- 'प्रेत सम्राट! जब आप भोजन करने बैठते थे, तब आपके आस-पास खड़े भूतों की दुष्ट दृष्टि आपके भोजन पर पड़ती और तब वह भोजन दृष्टि-विषमय बन जाता था। वही भोजन सारी गड़बड़ियां पैदा करता था। आपके और कोई रोग नहीं है।'
बर्बरक खड़ा हुआ और विक्रम को छाती से लगाते हुए बोला- 'वैद्य ! तुम्हें जो मांगना हो, वह बिना किसी हिचकिचाहट के मांग लो। जिना धन चाहिए, सम्पत्ति चाहिए, वह मांगो। तुम्हें सब कुछ मिलेगा।'
___ विक्रम बोले- 'महाराज! मैं तो अयाचक वैद्य हूं। आप रोगमुक्त हो गए, यही मेरा बड़ा पुरस्कार है। वास्तव में मैं वैद्य नहीं, अवन्ती का सम्राट् विक्रमादित्य हूं। मेरे प्रजाजन आपके पास फंसे पड़े हैं, इसलिए मुझे यहां आना पड़ा।
'क्या आप स्वयं वीर विक्रम हैं? मैं धन्य हुआ। मैं तो आपका दास हूं। महाराज! आप जब मुझे याद करेंगे, तब मैं उपस्थित हो जाऊंगा। आप जो कहेंगे, वह करूंगा।'
उसी दिन वीर विक्रम कूप में कैद किए हुए सभी व्यक्तियों को साथ लेकर नगरी में लौट आए और यह समाचार पवन की भांति सारे नगर में फैल गया।
वीर विक्रमादित्य १७५