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विक्रम ने कहा- 'तुम्हारी पत्नी का स्वास्थ्य ठीक हो गया, यही मेरे लिए बड़ी भेंट है । '
द्वारपाल ने आग्रह किया । अन्त में विक्रम ने उस वज्रमुद्रिका को प्रेतपत्नी के हाथ में देते हुए कहा - 'बहन ! तुम प्रेत योनी में हो, फिर भी मैंने तुम्हें बहन कहा है, इसलिए एक भाई की भेंट स्वीकार करो ।'
प्रेतपत्नी ने गद्गद होकर उस मुद्रिका को पहन लिया। फिर द्वारपाल विक्रम को प्रेतसम्राट् बर्बरक के पास ले गया और नमस्कार कर बोला-'महाराज ! ये एक महान् वैद्य हैं। इन्होंने मेरी पत्नी को एक ही रात में रोगमुक्त कर दिया। मैं इन्हें आपकी चिकित्सा करने लाया हूं।'
बर्बरक विक्रम की ओर देखता रहा । वह एक विशाल पलंग पर सो रहा था। उसके पास विचित्र वेशभूषा में उसकी आठ रानियां बैठी थीं। पचास भूत उसकी सेवा में खड़े थे ।
विक्रम बोला- 'प्रेतसम्राट् ! मैं आपका रोग जान गया हूं।'
बर्बरक ने कहा - 'अरे वैद्यराज ! तुम मेरी नाड़ी का परीक्षण किए बिना ही रोग जान गए ?'
'हां, महाराज! मैं दृष्टि वैद्य हूं। मुझे नाड़ी देखने की आवश्यकता नहीं होती। आप कहें तो आपका रोग बता दूं।'
ये शब्द सुनकर बर्बरक को बहुत आश्चर्य हुआ। वहां जो भूत सेवा के लिए खड़े थे, वे सभी विस्मित होकर विक्रम की ओर देखने लगे। बर्बरक बोला- 'अच्छा वैद्यराज ! बताओ, मुझे क्या रोग है ?'
तत्काल विक्रम बोले- 'महाराज ! आप भयंकर अजीर्ण रोग से ग्रस्त हैं, सारा दिन बेचैनी में बीतता है। रात भर नींद नहीं आती। बताएं, क्या यही आपकी स्थिति है ? '
'हां, भाई ! जो तुमने कहा है, वही सही है। अब तुम जो औषधि दोगे मैं उसका सेवन करूंगा।'
विक्रम बोले- 'महाराज ! आप भोजन कब करते हैं ?'
‘मध्यरात्रि में !'
'जब आप भोजन करने बैठें, तब मुझे बुला लेना। उस समय आपके रोग के निवारण का उपय बताऊंगा ।'
वैसा ही हुआ । मध्यरात्रि के समय जब बर्बरक भोजन के लिए बैठा, तब उसने वैद्य विक्रम को आदरपूर्वक वहां बुला भेजा और स्वर्ण-आसन पर बिठाया । विक्रम ने देखा कि बर्बरक के पास उतना भोजन पड़ा है, जिससे सौ व्यक्ति भूख १७४ वीर विक्रमादित्य