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________________ विक्रम बोले- 'मैं बहुत दूर रहता हूं। अवंती में एक योगी ने तुम्हारी पत्नी के रोग की चर्चा की थी, इसलिए मैं अपनी इच्छा से आया हूं।' "वैद्य ! यदि तुम मेरी पत्नी को स्वस्थ कर दोगे, तो मैं तुम्हें अपने स्वामी बर्बरक से मिलाऊंगा। यदि तुम मेरे स्वामी को भी रोगमुक्त कर दोगे तो जो मांगोगे, वही मिलेगा।' 'भाई! मैं कुछ पाने के लिए यहां नहीं आया हूं। सही वैद्य लालची नहीं होता। तुम मुझे अपनी पत्नी के पास ले जाओ। मैं उसके रोग-निवारण का प्रयत्न करूंगा।' द्वारपाल एक दूसरे पिशाच को अपने स्थान पर बिठाकर विक्रम को अपने निवासस्थान पर ले गया। वैद्य को एक आसन पर बिठाकर कहा-'वैद्य ! तुम यहां बैठो। मैं पत्नी को बुला लाता हूं।' विक्रम वहीं बैठ गये। कुछ ही क्षणों में द्वारपाल अपनी बीमार पत्नी को ले आया। विक्रम वैद्य-विधि जानता नहीं था, फिर भी उसने वैद्य का अभिनय किया। उसने प्रेतपत्नी से पूछा- 'बहन! तुम्हें क्या पीड़ा है?' प्रेतपत्नी बोली- 'वैद्यराज! मैं अत्यन्त पीड़ित हूं। मेरी पीड़ा अपार है। दिन में मैं अंधी हो जाती हूं और रात को दीखने लगता है, किन्तु पूरी रात मुझे दस्त लगते रहते हैं। यदि आप मुझे वर्षों की बीमारी से मुक्त कर दें तो मैं आपको भगवान मानूंगी।' विक्रम ने उस प्रेतपत्नी की आंखें देखीं, पेट देखा, जीभ देखी और नाड़ी देखी। फिर बोले-'अरे बहन ! यह कोई कठिन रोग नहीं है। कल प्रात:काल तक तुम स्वस्थ हो जाओगी। यह दवा देता हूं। इसे दूध के साथ ले लेना। यदि प्रात: तुम्हारा अंधापन दूर हो जाए तो मुझे बताना।' विक्रम ने औषधि दी। प्रेतपत्नी ने तत्काल उसे दूध के अनुपान से ले लिया। द्वारपाल ने विक्रम को विश्राम करने के लिए कहा। - चमत्कार घटित हुआ। औषधि-सेवन के पश्चात् प्रेतपत्नी को एकभी दस्त नहीं लगा और प्रात:काल वह सब कुछ देखने में समर्थ हो सकी। जिस खण्ड में विक्रम सो रहे थे, वहां दोनों द्वारपाल प्रेत और उसकी पत्नी आए। द्वारपाल ने कहा- 'वैद्यराज! आप मनुष्य नहीं हैं, देव हैं। मेरी पत्नी का सारा रोग एक ही रात में दूर हो गया। अब आप मेरे पर कृपा करें।' 'बोलो, क्या बात है?' विक्रम ने कहा। 'आप मेरे स्वामी प्रेतसम्राट् बर्बरक का दर्द मिटाएं। साथ ही मेरी यह तुच्छ भेंट भी स्वीकार करें।' यह कहकर द्वारपाल ने वज्ररत्न की एक मुद्रिका उनके हाथ में रखी। वीर विक्रमादित्य १७३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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