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महामंत्री बोले- 'भले मनुष्य ! तुम्हें कुछ गलतफहमी हुई है। कूप तो कल ही पाट दिया गया था।'
विक्रम खड़े हो गए थे। किसान को देख रहे थे। किसान बोला-'अन्नदाता! कूप वैसा का वैसा है, जैसा आठ दिन पूर्वथा। यदि आपको मेरी बात पर विश्वास न हो तो आप उसकी परीक्षा करने के लिए किसी को भेजें।'
विक्रम राजसभा का कार्य स्थगित कर महाप्रतिहार और दो रक्षकों को साथ लेकर एक रथ में बैठकर कूप की ओर चल पड़े। कूप के पास पहुंचकर आश्चर्य के साथ देखा कि जो कूप कल पाट दिया गया था, वह आज ज्यों का त्यों है। यह आश्चर्यकारी घटना थी। ऐसा होना न कभी सुना था और न देखा था। विक्रम ने सोचा- 'यदि यह कूप न पाटा जा सके, तो मेरी प्रजा के लिए यह एक अभिशाप होगा।'
निराश होकर विक्रम राजभवन में लौट आए। स्वामी को खिन्न और चिंतित देखकर रानी कमलावती ने पूछा-'आज आप इतने चिंतित क्यों हैं?'
विक्रम ने कहा- "प्रिये! लोग राजा बनने के लिए तप करते हैं, आराधना करते हैं, पुण्य करते हैं। किन्तु वे नहीं जानते कि राज्यसत्ता सुख की शय्या नहीं है, किन्तु जीवन को भस्मसात् करने वाली एक चिनगारी है।' विक्रम ने कूप की पूरी घटना रानी को सुनाई।
पूरी बात सुनकर रानी बोली-'प्राणनाथ! यह अमानवीय कृत्य लगता है। कोई दुष्ट आत्मा या कोई दुष्ट यक्ष कूप के आश्रय में रहता है और वही यह कार्य कर रहा है।'
विक्रम बोले- 'कमला! कुछ भी हो । मुझे समस्या का निवारण नहीं सूझ रहा है।'
'उपाय तो आपकी मुट्ठी में ही है।' कमला ने हंसते हुए कहा। 'मेरी मुट्ठी में ?' 'हां, स्वामी! ऐसे समय में आप अपने महान् मित्र को कैसे भूल रहे हैं?'
विक्रम हर्षित होकर प्रियतमा को बाहुपाश में भरते हुए बोले-'कमला! तुम मेरी प्रेरणा हो। मैं अभी अपने मित्र को याद करता हूं।'
विक्रम ने अग्निवैताल का स्मरण किया। कुछ ही क्षणों में वैताल अदृश्य रूप में आ उपस्थित हो गया और प्रकट होकर बोला-'महाराज, क्या आज्ञा है?'
विक्रम ने अपने महान् मित्र को एक आसन पर आदरपूर्वक बिठाया और कूप का सारा वृत्तांत कह सुनाया। सारी बात सुनकर अग्निवैताल ने कहा'महाराज! प्रश्न बड़ा विचित्र है। प्रेत-सम्राट् बर्बरक डेढ़ महीने से अपने पूरे परिवार
वीर विक्रमादित्य १७१