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________________ सोचती-क्या पुरुष अपनी अर्धांगिनी को भूलने में ही अपना पुरुषार्थ मानते हैं? क्या स्वामी बंगदेश में पहुंचकर वहां किसी नवयौवना के नयनबंधन में बंध गए हैं? पुत्री की मनोव्यथा को दूर करने का प्रयत्न उसकी मां, पिता और सखियों ने करना चाहा, किन्तु कोई प्रयत्न सफल नहीं हुआ। नारी के हृदय में सबसे बड़ा प्रश्न होता है पति का। सुकुमारी की व्यथा उत्तरोत्तर बढ़ती गई। पति के अभाव में वह अपने आपको शून्य मानने लगी। उसे सदा पति की ही स्मृति आती। उसे लगता कि पति के अभाव में वह पगला जाएगी। इस प्रकार दर्द, व्यथा और आश्वासन के बीच एक दिन सूर्योदय के समय उसने पुत्र रत्न को जन्म दिया। पुत्रोत्पत्ति का शुभ समाचार सुनकर महाराजा शालिवाहन ने याचकों को दान दिया। सुकुमारी का पुत्र अत्यन्त सुन्दर था। उसका प्रत्येक अंग-प्रत्यंग शुभ लक्षणों का सूचक था। सवा महीने के पश्चात् जब ज्योतिषी ने उस नवजात शिशु की जन्म-पत्रिका बनाई तब उसकी माता तथा नाना-नानी को बहुत प्रसन्नता हुई; क्योंकि नवजात शिशु की जन्म कुंडली में राजयोग था और पराक्रम का योग भी था। शिशु का नाम देवकुमार रखा गया। समय के ऐसे पंख होते हैं कि वह कब उड़ता है और कब विराम लेता है, कोई नहीं जान पाता। छह महीने देखते-देखते बीत गए। सुकुमारी अपने प्रिय पुत्र के लालन-पालन में इतनी तल्लीन हो गई कि उसे समय बीतने का भान ही नहीं रहा। ___ मातृत्व की मंगल-याचना स्त्री के जीवन में वात्सल्य के सागर को प्रकट करती है। इस सागर की लहरों में स्त्री सब कुछ भूल जाती है और अपने हृदय की समग्रता अपने पुत्र में उड़ेल देती है। ___ फिर भी नारी अपने प्रियतम को कभी विस्मृत नहीं करती। जब तक संतान की प्राप्ति नहीं होती, तब तक नारी का आधार होता है स्वामी। किन्तु संतान की प्राप्ति के पश्चात् उसका समग्र मन वात्सल्य से भरा-पूरा हो जाता है। सुकुमारी अपने पुत्र में तदाकार बनकर रहती थी। फिर भी वह अपने कलाकार स्वामी को कभी नहीं भूल पायी। वह सोचती, स्वामी छह मास का वादा कर गए थे। आज पूरा एक वर्ष बीत गया है। वे लौटे क्यों नहीं? क्या ऐसे सुन्दर पुत्र को देखने की अभिलाषा उनमें नहीं जागी ? क्या पुरुष-जाति स्वभाव से ही इतनी कठोर और चंचल होती है? १६८ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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