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________________ ३४. मस्तक-शूल विक्रम ने दैवी खड्ग के दो टुकड़े करते हुए कहा-'मित्र! ऐसे भयंकर शस्त्र का नष्ट होना ही अच्छा है।' 'महाराज! यह दैवी शस्त्र सुरक्षित रखने योग्य था। खैर, अब हम भीतर के खण्ड में चलें।' अग्निवैताल ने कहा। दोनों भीतर गए। एक खण्ड में नगर की चारों श्रेष्ठी कन्याएं और रानी कलावती आश्चर्यविमूढ़ होकर बैठी थीं। अपने स्वामी को आते देखकर कलावती उठ बैठी। विक्रम ने पत्नी का हाथ पकड़कर कहा-'प्रिये, मेरा यह महान मित्र यदि सहयोग नहीं करता, तो आज क्या परिणाम आता, उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती।' कलावती स्वामी के तेजस्वी वदन की ओर देखती रही। फिर विक्रम और वैताल ने चोरी के माल वाला भण्डार देखकर सारे गुफागृह की छानबीन की। "मित्र! अब हमें इन बालाओं को लेकर यहां से जाना चाहिए। प्रतीत होता है कि रात्रि का अंतिम प्रहर अब समाप्त होने वाला ही है।' विक्रम ने कहा। 'आप पांचों स्त्रियों को लेकर चलें। मैं समूचा खजाना आपके भवन में पहुंचा देता हूं।' अग्निवैताल ने कहा। ___ 'प्रात:काल नगररक्षक आएगा और सारा सामानले जाएगा। तुम हमारे साथ ही चलो।' "तो फिर मुझे जाने की आज्ञा दें।' 'क्यों? आतिथ्य स्वीकार नहीं करोगे?' 'आतिथ्य तो जब कभी मांग लूंगा। परन्तु अभी एक उपाधि खड़ी हो गई है।' 'उपाधि! तुम जैसे समर्थ के लिए?' 'महाराज! कहते कुछ लज्जा का अनुभव हो रहा है। मेरे मन में विवाह करने की इच्छा उत्पन्न हुई है।' 'वाह! इसमें उपाधि कैसी? वह भाग्यशालिनी कौन है?' 'मैं मैनाक पर्वत पर गया था। मेरी जाति की ही एक सुन्दरी मिल गई है।' वैताल बोला। 'वाह मित्र! यह तो आनन्द की बात है। विवाह के समय मुझे भूल तो नहीं जाओगे?' 'यही तो उपाधि है।' अग्निवैताल बोला। १६६ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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