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खर्परक कुछ भी समझ नहीं सका। स्वयं के हाथ से खड्ग नीचे कैसे गिरा, यह एक आश्चर्य बन गया। उसने विक्रम की तलवार उठाई। वह उसे बहुत हल्की लगी । उसने देखा-देवी चंडिका का खड्ग विक्रम के हाथ में है, यह कैसे हुआ ? खर्परक मन-ही- -मन झुंझला उठा और गुफा में छिपने के लिए दौड़ा। उसी समय विक्रम ने ललकारते हुए कहा- 'अरे ! तू किस आधार पर अहं कर रहा था ? मौत से डरने वाला क्या अवंती का नाथ बन सकता है ? कायर ! इधर आ और अपने बाहुबल का परिचय दे ।'
विक्रम की ललकार से खर्परक तिलमिला उठा। वह बोला, 'अरे भिखारी ! मुझे तेरे पर दया आ गयी थी। पर नियति है कि तेरी मौत आ गई है।'
दोनों के मध्य तलवार-युद्ध प्रारंभ हुआ - किन्तु यह युद्ध मात्र दो क्षण तक टिका । विक्रम ने एक ही प्रहार से खर्परक के हाथ की तलवार के टुकड़े-टुकड़े कर डाले । विक्रम ने भी दैवी खड्ग को एक ओर फेंकते हुए कहा - 'नि:शस्त्र व्यक्ति पर शस्त्र-प्रहार करना कायरता का सूचक है।' परन्तु खर्परक उस दैवी खड्ग को लेने दौड़ा। विक्रम जान गया। खर्परक उस खड्ग के निकट पहुंचे, उससे पूर्व ही विक्रम ने खर्परक को बाहुपाश में जकड़कर खण्ड के मध्य ला पटका । खर्परक की आंखों के सामने अंधेरा छा गया। उसने मन-ही-मन सोचा, एक भिखारी की भुजाओं में इतनी शक्ति! खर्परक हिम्मत कर उठा और तड़ककर बोला- 'तू भिखारी नहीं है, कोई छद्मवेशी है।'
'भिखारी तो तू है। मैं विक्रमादित्य हूं, जिसका राज्य हड़पने की बात तू सोच रहा है, जिसके नगर की चार कन्याओं और राजलक्ष्मी का तूने अपहरण किया है । '
'ओह! तब तो मेरा शिकार मेरे घर स्वयं ही आ गया है। अच्छा हुआ', कहकर खर्परक पुन: दहाड़ा और उसने अपनी कमर में बंधी कटार निकाली। विक्रम के पास कोई शस्त्र नहीं था । खर्परक कटार का प्रहार करने के लिए उठा पर विक्रम ने चपलता से उसका हाथ पकड़कर इतना जोर से धक्का मारा कि खर्परक जमीन पर लुढक गया। विक्रम उसकी छाती पर चढ़ बैठा । खर्परक अभी भी सावधान था। उसने विक्रम की छाती में कटार भोंकने का विचार किया । वह अपने विचार को क्रियान्वित करे, उससे पूर्व ही विक्रम ने खर्परक के गले पर पास में पड़े दैवी खड्ग का प्रहार कर डाला ।
रक्त का फव्वारा ऊपर उछला - कुछ तड़पकर खर्परक ने प्राण तोड़ दिए। अदृश्य वैताल प्रकट होकर बोला- 'महाराज की जय हो। आपने आज एक महान् कार्य किया है।'
विक्रम बोला- 'मित्र ! तुम्हारी कृपा का ही यह परिणाम है।'
वीर विक्रमादित्य १६५