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खर्परक बोला- 'चल, इन दोनों वस्तुओं को उठा।'
विक्रम मद्यभांड को सिर पर रख और मिठाई के करंडक को हाथ में लेकर खर्परक चोर के पीछे-पीछे चला।
नगरी के बाहर निकलकर खर्परक ने पूछा-'अरे! तेरा नाम क्या है?' "विक्रमो!' 'अरे नाम तो सरस है, मालवपति का नाम भी विक्रमादित्य है।'
'बापू! सबके अपने-अपने कर्म होते हैं। कहां तो मैं विक्रमो और कहां विक्रम!'
आधी रात के बाद दोनों गुफागृह के द्वार पर पहुंच गए। खर्परक ने कहा, 'तू यहीं बैठ। मैं ये अन्दर रखकर आता हूं।'
'बापू! आप क्यों कष्ट करते हैं, आज तो मेरे सोने का सूरज उगा है। आप कहें, वहीं मैं इन्हें रख दूंगा।'
'नहीं, तू यहीं बैठ।' कहकर खर्परक ने गुफा का द्वार खोला और मद्यभांड और मिठाई का करंडक लेकर अन्दर गया।
विक्रम को देवी चक्रेश्वरी की बात याद थी। इस तांत्रिक चोर की मृत्यु इस गुफा के अतिरिक्त दूसरे स्थान में हो नहीं सकती। गुफागृह में जाने के पश्चात् खर्परक अपने मूल रूप में आ जाता है। इस स्वर्ण अवसर को नहीं खोना चाहिए। जो अवसर को खो देता है, वह पीछे पछताता है। यह सोचकर विक्रम भी गुफागृह में प्रविष्ट हुआ। वह कुछ सोपान धीरे-धीरे नीचे उतरा। वह इस गुफागृह से अनजान था। कुछ दूर उतरने पर उसके कानों में कुछ शब्द टकराये-कोई परस्पर बातचीत कर रहा था। वहां प्रकाश भी दृष्टिगोचर हुआ। विक्रम ने देखा कि छोटा दिखाई देने वाला गुफागृह भीतर से अत्यन्त विशाल और भव्य है, कम-से-कम उसमें पांच-छह कक्ष अवश्य होने चाहिए।
विक्रम एक ओर छिपकर खड़ा हो गया और क्या बातचीत हो रही है, उसे ध्यान से सुनने लगा।
३३. रक्त का फव्वारा गुफागृह के आभ्यंतर खण्ड से चारों श्रेष्ठी कन्याएं बाहर आयीं और खर्परक को देखकर एक कन्या बोली, 'खर्परक! तुम कितने निर्दयी हो। हमारी करुणाभरी प्रार्थनाओं और आंसुओं से भी तुम्हारा दिल नहीं पिघला। हमें प्रतीत होता है कि तुम्हारे भीतर मनुष्य का नहीं, राक्षस का कलेजा है।'
'बकवास बन्द करो-क्या मैं तुम्हें भूखा-प्यासा रखता हूं?'
१६० वीर विक्रमादित्य