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________________ इसी मार्ग पर एक चट्टान पर विक्रम दरिद्र क्षत्रिय के वेश में बैठे थे। उन्होंने रात्रि के सघन अंधकार में भी खर्परक को पहचान लिया। खर्परक जब निकट आया तब विक्रम ने खड़े होकर हाथ जोड़कर प्रार्थना की-'भाग्यशाली की जय हो। मैं एक गरीब परदेशी हूं....तीन दिन से भूखा हूं.... मेरे पर दया करें....प्रभु आपकी मनोकामना पूर्ण करेंगे।' 'यहां क्यों बैठे हो?' खर्परक ने पूछा। 'कहां बैटूं, महाराज! न मेरा कोई स्थान है, न मकान है और न पास में एक कौड़ी है। सामने माताजी का एक मन्दिर है, वहां पूजा करने गया था, किन्तु वहां न कोई पुजारी मिला और न कोई प्रसाद प्राप्त हुआ, इसलिए भूखा-प्यास यहां आकर बैठा हूं।' खर्परक ने पूछा-'किस जाति के हो?' 'महाराज! जाति से क्षत्रिय हूं...किन्तु दुर्भाग्य से सब कुछ गंवा बैठा हूं।' 'चल मेरे साथ नगरी में....लौटते हुए मेरा कुछ सामान तो ढोकर ले आएगा?' 'धन्य हो, महाराज! जरूर ही आपका सामान ढो लाऊंगा...किन्तु मैं भूखा हूं।' "निश्चिन्त होकर मेरे पीछे-पीछे आ जा....' कहकर खर्परक आगे बढ़ा। थोड़े समय के पश्चात् दोनों ने नगरी में प्रवेश किया। सबसे पहले खर्परक ने एक हलवाई की दूकान से मिठाई का एक करंडक भरवाया और दरिद्र वेशधारी विक्रम को मिठाई खाने के लिए दी। फिर वह एक मद्य की दूकान में गया और वहां से मद्य का एक घड़ा खरीदकर विक्रम से बोला-'तू यहां बैठकर मिठाई खा ले और इस करंडक और भांड को पास में रख, मैं कुछ ही समय में लौट आऊंगा।' । ___ 'जय हो! जय हो! महाराज, मैं यहीं बैठकर आपकी प्रतीक्षा करता हूं।' विक्रम ने कहा। खर्परक एक गली में गया और अदृश्य होकर एक जौहरी के घर में घुसा। रात्रि का दूसरा प्रहर चल रहा था। खर्परक ने जौहरी के रत्न-भंडार से बहुमूल्य रत्नों की एक पोटली बांधी और घर से बाहर आ गया। ___ जौहरी के घर के सदस्य जागते बैठे थे और बातें कर रहे थे। किन्तु उनको इस चोरी का पता नहीं चला। रत्नों की पोटली कमर में बांधकर खर्परक उस स्थान पर आया, जहां विक्रम प्रतीक्षा में बैठा था। उसने वह मिठाई स्वयं न खाकर एक कुत्ते को खिला दी। वीर विक्रमादित्य १५६
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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