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बार वह नये-नये रूप धारण करता है और जब वह चोरी करने या अपहरण कर जाता है तब अदृश्य हो जाता है। तुम प्रतिदिन नगरचर्या में जाते रहना....वह विविध रूप में तुम्हें मिलेगा। परन्तु एक पहचान है कि खर्परक चाहे किसी भी रूप को धारण करे, उसके बाएं हाथ में लोहे का एक कड़ा अवश्य होगा। इस आधार पर उसकी पहचान कर, तुम उसके पीछे-पीछे चले जाना और उसके गुप्त स्थान को देखकर आ जाना। खर्परक प्रतिदिन कुछ-न-कुछ नयी चीजें खरीदकर ले जाता है।'
विक्रम ने देवी को साष्टांग प्रणाम किया। देवी आशीर्वाद देकर अदृश्य हो गई।
तीन दिन-रात की आराधना पूर्ण हो चुकी थी। प्रात:काल विक्रम मन्दिर से बाहर निकले। उस समय महारानी कमला बाहर ही खड़ी थी।
उसने स्वामी का सत्कार किया। स्वामी के चेहरे को देखकर वह समझ गई थी कि तीन दिन तक उपवासी रहने पर भी स्वामी के वदन पर प्रसन्नता क्रीड़ा कर रही है, इससे प्रतीत होता है कि साधना का सुपरिणाम अवश्य आता है।
पत्नी को प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखते हुए महाराजा विक्रम ने कहा-'प्रिये! मेरी साधना फलवती हुई है।
___ वहां खड़े रक्षकों ने महाराजा का जयनाद किया। वहां से विक्रम भवन में गए। तेले की तपस्या का पारणा किया और महारानी कमला को चक्रेश्वरी देवी की सारी बात संक्षेप में बताई।
थोड़े समय पश्चात् सभी मन्त्री आ गए। महाराजा विक्रम ने खर्परक चोर की सारी बात बताई और उसे पकड़ने के उपायों की चर्चा की।
विक्रम वेश-परिवर्तन कर रात्रि के प्रथम प्रहर में नगरचर्या के लिए निकले।
चौथे दिन उन्होंने देखा कि एक अजनबी व्यक्ति हलवाई की दुकान से मिठाई खरीद रहा है। उसके हाथ में लोहे का कड़ा था। मिठाई लेकर वह आदमी चला। विक्रम भी उसके पीछे-पीछे पूर्ण सावचेती से चले।
नगरी से बाहर आकर विक्रम और अधिक सचेत हो गए और उसके पीछे चलते रहे....वह व्यक्ति मांत्रिक चोर खर्परक ही था। वह चंडिका के मंदिर के निकट आया। मन्दिर के पिछले भाग के भू-गृह में वह प्रविष्ट हुआ और द्वार बन्द कर लिया।
विक्रम स्थान का पूरा निर्णय कर तत्काल लौट गया। दूसरे दिन विक्रम एक दरिद्र क्षत्रिय का वेश धारण कर खर्परक के आने के मार्ग पर बैठ गया। यथा-समय खर्परक नये रूप में भू-गृह से बाहर निकला और मस्ती से नगर की
ओर चला। १५८ वीर विक्रमादित्य