SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ असली गुणसागर कौन है, यह निश्चय हो गया है। जिसके भाल पर तिलक है, वह दुष्ट व्यंतर प्रतीत होता है, वह दोषी है। ' व्यंतर गुणसागर घबरा गया। राजपुरुष उसे पकड़ने आगे बढ़े, वह अदृश्य हो गया और प्रवास से आया हुआ असली गुणसागर अपने परिवार से जा मिला। समय बीतने लगा । चंडिका की कृपा से खोपड़ी में स्थित गर्भ वृद्धिंगत होने लगा। धीरे-धीरे वह चंडिका की दासियों की गोद में बड़ा होने लगा। चंडिका ने उस बालक का नाम 'खर्परक' रखा, क्योंकि वह एक मानव खोपड़ी में बड़ा हुआ था । दिन बीतने लगे। वह बड़ा हुआ। एक ओर वह व्यंतर का बीज था, दूसरी ओर चंडिका की कृपा थी । खर्परक आठ वर्ष का हुआ, तब चंडिका उसे विविध देशों में घुमा लायी। जब वह चौबीस वर्ष का हुआ तब चंडिका ने उसे इस भूगृह में रखा और वरदान देते हुए कहा-'वत्स! इस गुफागृह में ही तेरी मृत्यु हो सकेगी। इसके अतिरिक्त किसी भी स्थान में तुझे कोई नहीं मार सकेगा।' इतना कहकर देवी ने उसे एक दिव्य तलवार दी और कहा - 'वत्स ! इस तलवार से तू महानतम वीरों को पराजित कर सकेगा।' चंडिका की कृपा से समृद्ध बनकर खर्परक भूगृह में रहने लगा। उसने अदृश्य होने आदि की अनेक उपलब्धियां प्राप्त कर लीं । अन्त में खर्परक के मन में अवंती का राज्य हड़पने तथा सुन्दर स्त्रियों के साथ विवाह करने का विचार उभरा। साथ-साथ उसमें लोभवृत्ति भी जागृत हुई। वह अपनी विशिष्ट शक्तियों का उपयोग करने लगा । वह चोरी, अपहरण करने में माहिर हो गया। राजन् ! उस खर्परक चोर ही आपकी पत्नी का अपहरण किया है और पांचों स्त्रियों को भूगृह में रखा है। यह चोर चंडिका के वरदान से अजेय बना हुआ है। इसको पकड़ पाना या मारना किसी के वश की बात नहीं है । ' 'विक्रम ने कहा – 'कृपामयी ! आप मेरे पर प्रसन्न हुई हैं। मुझे और कुछ नहीं चाहिए । मेरी प्रजा इस चोर के त्रास से मुक्त हो, यही मेरी आन्तरिक अभिलाषा है। आपकी शरण में आया हूं। यदि चोर अजेय ही रहा तो फिर... ' 'वत्स ! तुम्हारी मनोकामना को मैं समझती हूं। किन्तु यह चोर चंडिका के वरदान से अजेय बन चुका है.... तुम धैर्य रखकर एक बार उसकी खोज कर लो....उसके भू-गृह में प्रवेश कर जाओ....तुम बाहर उसके साथ किसी प्रकार से मत भिड़ना। उसकी मृत्यु का उपाय केवल उसके गुफागृह में ही है।' विक्रम बोले- 'महादेवी! मैं आपके दर्शन से धन्य बन गया । किन्तु उस चोर की पहचान क्या है ?' चक्रेश्वरी देवी बोली- 'वह चोर खर्परक प्रतिदिन रात्रि के पहले प्रहर में अवंती नगरी में आता है.... परन्तु वह इतना चालाक है कि प्रत्येक वीर विक्रमादित्य १५७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy