________________
३२. गुफागृह में देवी चक्रेश्वरी ने विक्रम की आराधना से प्रसन्न होकर मांत्रिक चोर का वृत्तान्त आगे सुनाते हुए कहा- 'राजन्! नगरी की उत्तर दिशा में, श्मशान से कुछ दूर एक मन्दिर है। उसमें देवी चंडिका की प्रतिष्ठा की हुई है। इस मंदिर में एक गुप्त भूगृह है। देवी चंडिका ने इसी भूगृह में खोपड़ी सहित गर्भ को सावधानी से रखा और गर्भ के पालन की व्यवस्था की।
इधर नगरी में गुणसागर की पत्नी रूपवती लोकलज्जा और भय की चिन्ता से मुक्त हो गई। दायण ने उसे ऐसी औषधि दी कि वह आठ-दस दिनों में ही स्वस्थ, सुन्दर और सुदृढ़ हो गई।
दोनों गुणसागरों को नजरबन्द किए तेरह दिन बीत चुके थे। राजा या मन्त्री कुछ भी निर्णय नहीं कर पा रहे थे। किन्तु महाराजा की चिन्ता को दूर करने के लिए नगर की श्रेष्ठ गणिका देवी चिन्तामणि तैयार हुई। वह महाराजा के पास आयी और समस्या का समाधान करना स्वीकार कर लिया।
महाराजा अत्यन्त प्रसन्न हुए। राजा ने समस्या के समाधान की बात बताने के लिए सेठ धनेश्वर के परिवार तथा नगर के अन्य गण्यमान्य व्यक्तियों को आमंत्रित किया। सभी उस स्थान पर आए, जहां दोनों गुणसागर नजरबन्द थे। गणिका चिन्तामणि भी आ गई।
चिन्ताणि अपनी एक दासी को लेकर भवन के भीतर गई और दोनों गुणसागरों को बाहर निकालकर कहा-'तुम दोनों में कौन असली गुणसागर है, इसका निर्णय करना कठिन है। फिर भी सत्य सदा विजयी होता है। इस दृष्टि से मैं एक उपाय कर रही हूं। मैं एक कमरे में भीतर से सांकल लगाकर बैठ जाऊंगी। तुम दोनों में से जो बिना द्वार खोले मेरे पास आएगा, वही सही गुणसागर होगा।' यह कहकर चिन्तामणि एक खण्ड में गई। सारी खिड़कियां बन्द कर, दरवाजे के भीतर से ताला लगाकर वह अन्दर बैठ गई। मनुष्य बिना दरवाजा खोले अन्दर प्रवेश कर नहीं सका, इसलिए असली गुणसागर असमंजस में फंस गया और दुष्ट व्यंतर परम प्रसन्न हुआ। वह कुछ ही क्षणों में अपनी शक्ति के प्रभाव से भीतर पहुंच गया और बोला- 'मैं सही गुणसागर हूं, सत्य ने मेरा साथ दिया है।'
'शाबास, गुणसागर! तुम विजयी हुए हो और नकली गुणसागर पराजित हुआ है। आओ, मैं सबसे पहले तुम्हारे भाल-पर कुंकुम का तिलक करूं।' यह कहकर गणिका ने उसके भाल पर कुंकुम का तिलक किया। फिर वह दोनों को लेकर बाहर आयी। वहां महाराजा आदि सभी बैठे थे। वह बोली- 'कृपानाथ! १५६ वीर विक्रमादित्य