________________
दूसरे दिन नगरी के परिसर में गुणसागर आ पहुंचा। सेठ धनेश्वर और व्यंतररूपी गुणसागर उसकी अगवानी के लिए गए। दूसरे सगे-संबंधी भी साथ में थे। असली गुणसागर को देखकर सबके आश्चर्य का पार नहीं रहा। इन दोनों में असली गुणसागर कौन है, यह एक विकट प्रश्न उपस्थित हो गया। जो पुराना मुनीम साथ में था, वह कार्यवश वहीं रुक गया था और छह महीने बाद आने वाला था। सबके सामने यही समस्या थी कि रूप, लिंग, कद, वाणी और चाल-सभी बातों में दोनों समान थे। इनमें कौन असली गुणसागर है, इसे कैसे पहचाना जाए।'
पिता ने नहीं पहचाना, किन्तु मां भी अपने असली पुत्र को नहीं पहचान पायी-रूपश्री भी भारी असमंजस में पड़ गई....उसका मन अत्यन्त व्यथित और पीड़ित हो गया....यदि प्रवास से आया हुआ गुणसागर ही वास्तविक है तो स्वयं एक जन्म में दो पति करने के दोष की भागी होगी और उदर में पांच महीने का गर्भ पल रहा था।
राजा विक्रम ! इस प्रश्न का समाधान पाने के लिए सभी अवंतीनाथ के समक्ष उपस्थित हुए। वे भी असमंजस में पड़ गए। असली गुणसागर को कैसे पहचाना जाए? राज्य के बुद्धिमान मन्त्री, न्याय-विशारद सभी विचार में फंस गए। अन्त में आपके पितामह राजा ने यह आदेश दिया-इन दोनों को एक स्थान पर अलग-अलग रखना चाहिए....पन्द्रह दिनों के भीतर यह पता लग जाएगा कि असली गुणसागर कौन है। राजाज्ञा के अनुसार दोनों को राजा के एक भवन में, अलग-अलग खण्ड में, रहने के लिए कहा गया।
इधर रूपवती अत्यन्त व्यथित थी। उसने सोचा, संभव है प्रवास से आए हुए गुणसागर ही असली स्वामी हों तो मेरी सगर्भावस्था अभिशाप बन जाएगी। इसलिए उसने नगरी की एक जानकार दायण को बुलाकर तत्काल गर्भपात करा डाला....पांच मास का गर्भ जीवयुक्त था। वह दायण गुप्त रूप से उस गर्भ को गांव के बाहर ले गई और नगरी से एक कोस दूर एकान्त में पड़ी हुई मानव-खोपड़ी में रखकर आ गई।
उसी समय चंडिका नाम की एक विद्याधर देवी आकाश-मार्ग से अपने विमान से जा रही थी। उसका विमान इस खोपड़ी के ऊपर आते ही आकाश में रुक गया। चंडिका देवी चौंकी और उसने दिव्यदृष्टि से देखा कि एक अपरिपक्व, सजीव-गर्भ के कारण विमान स्तंभित हुआ है।
चंडिका तत्काल विमान से नीचे आयी और गर्भ सहित उस मानव-खोपड़ी को ले गई। उसके मन में यह विचार आया कि यदि इस गर्भ का उचित पालनपोषण हो तो यह प्रभावशाली और पराक्रमी पुरुष तैयार होगा।
विक्रमादित्य देवी चक्रेश्वरी की बात ध्यानपूर्वक सुन रहे थे।
वीर विक्रमादित्य १५५