SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'वत्स! इस चोर का पूरा इतिहास सुन लो। प्राचीन समय की बात है। इस नगरी में तुम्हारे दादा राज्य करते थे। उस समय धनेश्वर नाम का एक धनाढ्य व्यक्ति यहां रहता था। उसकी पत्नी का नाम प्रीति और पुत्र का नाम गुणसागर था। पुत्र सर्वगुण-सम्पन्न था। जब वह युवा हुआ, तब रूपवती नाम की एक श्रेष्ठि कन्या से उसका पाणिग्रहण हुआ। रूपवती देवकन्या को भी लज्जित करने वाले रूप-सौन्दर्य से युक्त थी। वह गुणों में भी श्रेष्ठ थी। विवाह के कुछ ही समय पश्चात् गुणसागर सामुद्रिक व्यापार के लिए परदेश चला गया। धनेश्वर सेठ के घर के पास पीपल का एक वृक्ष था। उसके आश्रय में एक अधम व्यंतर देव निवास करता था। वह व्यंतर गुणसागर की पत्नी रूपवती में आसक्त बन गया था। गुणसागर को परदेश गया जानकर वह व्यंतर अपनी मोहान्धता को पूरी करने में तत्पर हुआ। दस दिन पश्चात् गुणसागर का रूप बनाकर वह घर लौटा और पिता को नमस्कार कर खड़ा रहा। पुत्र को इतना शीघ्र आया देखकर पिता को अत्यन्त आश्चर्य हुआ। उसने कहा-'गुणसागर! तुम इतनी शीघ्र कैसे लौट आए? क्या विदेश में मन नहीं लगा या कोई विपत्ति आ गई?' 'पिताजी, ऐसा कुछ भी नहीं है। विदेश-गमन का मेरा उत्साह ज्यों-कात्यों है। मार्ग में एक ज्ञानी महात्मा मिले। उन्होंने कहा-'वत्स! तु यदि परदेश जाएगा तो वहां तेरी मृत्यु हो जाएगी। फिर भी मैं आगे जाना चाहता था, परन्तु मुनीमों ने मुझे समझाकर यहां भेज दिया। न चाहते हुए भी मैं यहां आ गया।' 'बहुत अच्छा किया....धन हमारे पास बहुत है....केवल अनुभव प्राप्त करने के लिए मैंने भेजा था-किन्तु अंधे की लकड़ी के समान तुम मेरे सहयोगी हो। यदि तुम्हारी मौत हो जाती तो हमारी क्या दशा होती? तुमने लौटकर बहुत उत्तम काम किया है।' इस प्रकार पिता का प्रसाद प्राप्त कर गुणसागर-रूपी व्यंतर वहां रहने लगा और रूपवती के साथ विविध भोग भोगने लगा। व्यंतर का रूप साक्षात् गुणसागर जैसा ही था, इसलिए रूपवती को कोई शंका नहीं हुई। वह तो अपने पति को सर्वस्व मानकर ही उसकी सेवा कर रही थी। दो वर्ष बीते और एक दिन अचानक सेठ धनेश्वर के पास यह समाचार पहुंचा कि गुणसागर विदेश-यात्रा में पुष्कल धन अर्जित कर घर लौट रहा है। कल नगरी के परिसर में सब पहुंच जाएंगे। यह समाचार सुनकर सेठ धनेश्वर और समग्र पारिवारिक लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ। व्यंतर भी कठिनाई का अनुभव करने लगा। उसने धैर्यपूर्वक पिताश्री से कहा-'पिताश्री ! मेरे नाम से कौन आ रहा है? निश्चित ही कोई दस्यु या ठग होना चाहिए।' १५४ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy