________________
दूसरे दिन प्रात: स्नान-शुद्ध होकर विक्रमादित्य अन्नजल का त्याग कर, भवन में स्थित श्रीजिन मंदिर के पास चक्रेश्वरी देवी के मंदिर में आराधना के लिए बैठ गए।
एक दिन और एक रात बीत गई। दूसरा दिन और दूसरी रात भी बीत गई। तीसरा दिन पूरा हुआ और रात आयी।
अखण्ड दीप जल रहा था। मंदिर के बाहर दो रक्षक सदा रहते थे। महारानी कमला भी देख-रेख में संलग्न थी।
तीसरे दिन मध्यरात्रि के समय....|
वातावरण शान्त था। गाय के घृत का दीपक जल रहा था। अन्न-जल के बिना तीन दिन बीत रहे थे, फिर भी विक्रम की निष्ठा में कोई अन्तर प्रतीत नहीं हो रहा था-चक्रेश्वरी देवी की भक्तिपूर्वक आराधना चल रही थी।
रात्रि के तीसरे प्रहर की दो घटिकाएं बीती होंगी। उस समय मंदिर में अपूर्व प्रकाश हुआ और भयंकर झंझावात निर्मित हुआ हो, ऐसी स्थिति सामने आयी। किन्तु विक्रम पराक्रमी थे, क्षत्रिय थे, वे अडोल बैठे रहे।
उनके कानों पर कुछ शब्द टकराए- 'वत्स! तुम्हारी आराधना से मैं प्रसन्न हूं। बोलो, तुम क्या चाहते हो? विक्रम ! आंखें खोलो!'
विक्रम ने आंखें खोलीं-चक्रेश्वरी की ऐसी तेजोमय मूर्ति थी कि उस पर दृष्टि भी नहीं टिक पाती थी। देवी के दोनों हाथ ऊंचे थे।
विक्रमादित्य ने तत्काल हाथ जोड़कर नमस्कार किया। देवी चक्रेश्वरी बोली-'राजन! जो चाहो मांग लो।'
'भगवती! आप प्रसन्न हुई हैं, यही मेरे लिए पुण्य का उदय है। मुझे कुछ नहीं चाहिए, मां!....एक चोर इस नगरी में भारी उत्पात कर रहा है, महामंगलमयी। यह चोर कौन है, यह कहां रहता है-बस, इतना मात्र जानना चाहता हूं। आप कृपा कर बताएं।'
देवी ने मृदुमंजुल स्वर में कहा-'राजन्! यह चोर इतना भयंकर है कि देवता भी इसे पकड़ने में हिचकते हैं। यह तुम्हारे राज्य की अभिलाषा कर रहा है-यह दुस्साध्य है।'
'कृपामयी ! आप मुझे उसका परिचय बता दें-यदि मैं इस चोर को पकड़कर अपनी प्रजा का दु:ख दूर नहीं कर सकता तो मैं राजगद्दी का त्याग कर दूंगा । मुझे राज्य का कोई मोह नहीं है और चोर को पकड़ने के समय यदि मेरी मृत्यु भी हो जाए तो वह सुखद प्रसंग ही होगा।'
वीर विक्रमादित्य १५३