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________________ विक्रम बोले-'यह चोर न पकड़ा जाए, यह केवल मेरे पर ही नहीं, समूचे राजतंत्र पर कलंक है और इतने भारी संरक्षण के पश्चात् भी यदि राजरानी का अपहरण हो जाता है तो राज्य की प्रजा की रक्षा कैसे संभव हो सकती है?' महामंत्री ने कहा- 'कृपानाथ! इस घटना के कारण हम भी प्रजापालक को मुंह दिखाने योग्य नहीं रह जाते। इन आठ दिनों में हमारे रक्षकों ने नगर का कोना-कोना छान डाला है। कोई भवन शेष नहीं रहा है। अवंती नगरी के चारों ओर पांच-पांच कोस तक के गांव, मंदिर, गुप्त स्थल देखे जा चुके हैं-किन्तु इस मांत्रिक चोर के विषय में कोई बात ज्ञात नहीं हो सकी। उसके द्वारा चुराए गए धन और कन्याओं का भी कहीं अता-पता नहीं लगा।' 'तो क्या हम सब हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ जाएं?' विक्रम ने कहा। 'नहीं, कृपानाथ! हमारा प्रयत्न इतना सघन और प्रबल है कि हम पल भर भी विश्राम नहीं करते-किन्तु जब सामुदायिक कर्म का विपाक होता है, तब सब लाचार बन जाते हैं।' नगररक्षक ने कहा। विक्रम जानते थे कि राजतंत्र निष्क्रिय नहीं है। सभी कर्मचारी सावधान हैं-फिर भी चोर के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं हो रहा है। सभी विचारमगन हो गए। इस विचार-विमर्श में देवी कमला भी उपस्थित थी। उसने कहा- 'महाराज! मुझे एक उपाय दीख रहा है।' 'प्रिये ! तुम बताओ, वह उपाय क्या हो सकता है?' 'प्राणनाथ! यह चोर कोई सामान्य नहीं है। यह मंत्रशक्ति या दैवीशक्ति से सम्पन्न होना चाहिए। उसको वश में करने का एकमात्र उपाय है-मंत्रशक्ति की आराधना। आप निष्ठापूर्वक तीन दिन तक चक्रेश्वरी देवी की आराधना करें। इससे आपकी और पूरे नगर की चिन्ता दूर हो सकेगी।' रानी कमलावती का यह उपाय सबके मन को भा गया। विक्रम ने अतिप्रसन्न दृष्टि से प्रियतमा की ओर देखकर कहा-'प्रिये! यह उचित उपाय है। कल ही मैं चक्रेश्वरी देवी की आराधना प्रारम्भ कर दूंगा।' नई रानी कलावती के अपहरण की बात कहीं प्रकट न हो जाए, इस बात का निर्णय लेते हुए सभी वहां से उठे-किन्तु ऐसी बातें क्या कभी गुप्त रह सकी हैं? मध्याह्न तक यह बात सारे नगर में, चौराहे-चौराहे पर चर्चा का विषय बन गयी। बात जब फैलती है, तब उसके साथ अनेक नई बातें जुड़ती हैं और इसीलिए तिल का ताड़ बन जाता है। संध्या होते-होते नगरी के अनेक श्रेष्ठी, राजपरिवार के सदस्य आदि महाराजा विक्रमादित्य से मिलने के लिए आने लगे। १५२ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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