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सार्थवाह ने अपनी कमर पर बंधी हुई थैली निकाली और कहा-'योगिराज! चरण-स्पर्श करना चाहता है।'
विक्रमादित्य वहीं खड़े रह गये।
सेठ ने पांच स्वर्ण मुद्राएं अर्पित की। यह देखकर विक्रमादित्य बोले-'भाई! मैं धन को नहीं छूता-मेरे को धन की आवश्यकता भी नहीं है।'
'कृपावतार, यह तो मैं....।'
विक्रम ने हंसते हुए कहा- 'मैं तेरी भावना को जान चुका हूं....साधु और स्वर्ण का कभी कहीं मेल नहीं होता।' ___ सेठ ने चरण-स्पर्श कर अवधूत के चरणों में पांच स्वर्ण मुद्राएं चढ़ा दीं।
विक्रमादित्य मुस्कराते हुए आगे बढ़ गए-स्वर्ण मुद्राएं मार्ग में पड़ी रह गईं। सेठ ने इसे संत का प्रसाद समझकर पांचों स्वर्ण मुद्राएं उठा लीं। उसने सोचा, यह तो कोई महान् योगी है, सच्चा त्यागी है।
विक्रमादित्य को इस प्रकार के अनेक अनुभव हुए। कोई व्यक्ति कभी फलाहार अथवा खाद्य-सामग्री दे जाता। यदि आवश्यकता होती तो वे उसे रखते, अन्यथा वापस लौटा देते। इस अवस्था में भी विक्रम अपनी माता द्वारा संप्राप्त संस्कार को नहीं भूले थे-वे सूर्यास्त के बाद अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे।
वे बाजार से चले जा रहे थे। एक स्थान पर उन्होंने देखा कि एक ब्राह्मण बैठा है। वह लगभग तीस वर्ष की आयुष्य का होगा। लोग उसको घेरकर खड़े थे। प्रत्येक व्यक्ति अपनेक्रम के अनुसार उसके पास जाता, प्रश्न करता, ब्राह्मण उसका जवाब देता। विक्रमादित्य ने सोचा, यह कोई निमित्तज्ञ अथवा ज्योतिषी है। लोग अपना भाग्य जानने के लिए कितने उत्सुक हैं। विक्रमादित्य के मन में भी कुतहल उत्पन्न हुआ और वे निकट के एक वृक्ष के नीचे खड़े रहकर सारा दृश्य देखने लगे।
उन्होंने देखा कि ज्योतिषी का चेहरा निर्मल और ज्ञान से गंभीर है। गरीबी होने पर भी उसका मन और वदन अत्यन्त प्रसन्न है। उसका शरीर भी स्वस्थ और सुन्दर है।
__ अचानक उस ज्योतिषी की दृष्टि अवधूत पर पड़ी और उसकी आंखों में चमक दौड़ पड़ी। उसने सोचा-यह अवधूत कोई असाधारण पुरुष है। इसका तेजस्वी वदन राजवंशी होने का साक्ष्य है। इसकी आंख की ज्योति अमृत-वर्षा कर रही है। इसकी प्रचण्ड भुजाओं में क्षत्रिय का बल होने का संकेत प्राप्त हो रहा है। इतना देखकर ज्योतिषी ने सोचा-ऐसे महात्मा पुरुष से मिलना चाहिए और उनकी पहचान कर लेनी चाहिए।
किन्तु प्रश्नकर्ताओं की भीड़ लगी हुई थी। सायंकाल का समय हो रहा था। ज्योतिषी सबके प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करने लगा। प्रश्नकर्ता
८ वीर विक्रमादित्य