________________
सुकुमारी कुछ भी नहीं बोल सकी। उसने अपने प्रियतम के कंठ में माला पहना दी और विक्रम उसको बाहुपाश में जकड़ें उससे पूर्व ही वह उनके चरणों में लुट गई ।
छह-छह भवों से पुरुष जाति की अग्निभरी दृष्टि से दग्ध हुई सुकुमारी को प्रेमोल्लास से विक्रम ने दोनों हाथ पकड़कर उठाया और बाहुपाश में भरते हुए कहा – ‘प्रिये ! तुम्हारे समर्पणभाव से आज मैं पूर्ण बना हूं- मेरे पास शब्द नहीं हैं, जिनके माध्यम से मैं अपना हर्ष व्यक्त कर सकूं। मैं मात्र इतना ही कह सकता हूं कि तुम्हारा समर्पण मेरे जीवन का मधुर संगीत बनकर रहेगा, यही गीत हमारे जीवन का पाथेय होगा ।'
सुकुमारी ने प्रियतम के बाहुपाश से मुक्त होने का तनिक भी प्रयास नहीं किया । लज्जा का भार समग्र देह पर था, परन्तु आज और अभी वह भार एक वरदान जैसा लग रहा था। उसने तिरछी दृष्टि से स्वामी के प्रसन्न वदन की ओर देखा और तब उसके नयन और वदन पर प्रफुल्लता खिल उठी ।
ओह! कलाकार की काया इतनी सुन्दर और बलिष्ठ है ? कलाकार के नयनों इतनी मस्ती है ?
विक्रम ने प्रिया के गुलाबी अधरों पर अपने अधर रखे और दीर्घ चुम्बन । सुकुमारी को लगा - इस स्पर्श का कहीं अन्त न हो। यह अनन्त बना रहे। विक्रम ने पूछा- 'प्रिये ! मौनव्रत तो नहीं है न ?'
सुकुमारी लज्जा के भार से दब चुकी थी। वह बोली- 'स्वामिन्! कभीकभी बोलने से सुनना अधिक तृप्तिदायी होता है।'
'ओह प्रिये ! ऐसी तृप्ति पुरुष के हृदय को सदा आनन्दित करती रही है।' दोनों के मन का संकोच दूर हो चुका था। जब मन का संकोच दूर हो जाता है, तब दो प्राण एक बनने का प्रयत्न करते हैं।
दोनों रत्नजटित पलंग पर बिछी पुष्प- शय्या पर बैठ गए।
विक्रम ने एक नया प्रश्न किया- 'प्रिये ! एक बात पूछूं ?' सुकुमारी ने आंखों की पंखुड़ियों से स्वीकृति दी ।
विक्रमादित्य ने अपनी प्रिया के कोमल हाथ अपने हाथों से पकड़कर कहा'प्रिये! मेरे मन का एक आश्चर्य अब तक शान्त नहीं हो पा रहा है ?'
सुकुमारी ने प्रश्नभरी दृष्टि से स्वामी की ओर देखा ।
विक्रम ने कहा- 'तुम जैसी रूपवती नारी को प्राप्त करने के लिए राजा ही क्या, देव भी लालायित रहते हैं और आशा का थाल भरकर तुम्हारे द्वार पर आ पहुंचते हैं। ऐसी स्थिति में तुमने एक कलाकार को वरमाला पहनाने का १३० वीर विक्रमादित्य