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संकल्प क्यों किया ? यदि तुम चाहती तो बहुत बड़े साम्राज्य की राजमहिषी बन सकती थी । '
बीच में ही सुकुमारी बोल उठी- 'कलाकार के हृदय में प्रेम, सद्भाव और विश्वास का खजाना भरा-पूरा होता है। राजा या देवों के पास ये गुण नहीं होते ।' 'मैंने सुना था कि तुम विवाह के बंधन में बंधना नहीं चाहती थी।'
'हां, यह सच है। मैं एक राजकन्या हूं । स्वाभाविक बात है कि यदि मेरा विवाह होता तो वह एक राजा के साथ ही होता - किन्तु नारी का हृदय केवल वैभव नहीं चाहता, सत्ता और अधिकार की अग्नि में जलना नहीं चाहता । वह जीवन को अमृतमय बनाने वाला प्रेम मात्र चाहता है, ऐसा प्रेम राजाओं के पास कहां है ?'
'तुम्हारे विचार उत्तम हैं, कहकर विक्रम ने सुकुमारी को छाती से लगा लिया ।
'और.... ।'
रात्रि का चौथा प्रहर प्रारम्भ हो चुका था। दोनों जीवन की प्रसन्नता में एक-दूसरे का परिचय पा रहे थे।
नर-नारी के प्रथम मिलन के समय प्रश्न एक नहीं, अनन्त बन जाते हैं और उनका उत्तर भी अनन्त हो जाता है और दोनों की बातें कभी पूरी नहीं होतीं । सदा अधूरी ही रहती हैं।
रात्रि के चौथे प्रहर की दो घटिकाएं शेष थीं । विक्रम ने वातायन की ओर देखकर कहा-‘ओह ! प्रभात होने वाला है। प्रिये ! तुम सो जाओ, आराम करो।' 'ऐसे अनन्त प्रभात आयेंगे और जाएंगे - शय्या में सोना कहां ? आराम
कहां ?'
'तो ?'
'जागरण का आनन्द असीम होता है - इसमें न श्रम होता है और न विषाद ।'
विक्रम को तत्काल एक स्मृति हो आयी। उसने पेटिका खोली और कमला द्वारा प्रेषित सारे अलंकार बाहर निकाले ।
शयनखण्ड में एक दीपक जल रहा था। उसके प्रकाश में अलंकारों में जटित रत्न चमकने लगे । सुकुमारी शय्या से नीचे उतर आयी ।
विक्रम ने कहा - 'प्रिये ! आज से दो वर्ष पूर्व एक महाराजा और महारानी मेरे संगीत पर मुग्ध होकर ये सारे मूल्यवान् अलंकार मुझे उपहार में दिए थेआज मैं तुम्हें ये सारे अलंकार अर्पित कर रहा हूं।'
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वीर विक्रमादित्य १३१