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________________ 'आप आज्ञा दें तो मैं कल यहां से अपने स्थान पर चला जाऊं। आप जब मुझे याद करेंगे, मैं हाजिर हो जाऊंगा।' विक्रम दो क्षण तक सोचने के बाद बोले- 'अच्छा, तुम जाओ। जब आवश्यकता होगी, तब मैं अवश्य ही याद करूंगा।' रात्रि का तीसरा प्रहर चल रहा था । वैताल अपने शयनकक्ष की ओर चला गया । विक्रम अब अपने शयन कक्ष में गया तब पूर्णिमा के चांद-सी मनोहर सुकुमारी नववधू के वेश में अपनी सखियों और दासियों से घिरी बैठी थी। कलाकार प्रियतम को कक्ष में प्रवेश करते देखकर सुकुमारी लज्जा के भार झुकी हुई थी। सभी सखियां और दासियां भी खड़ी हो गईं और नमन करती हुई खण्ड के बाहर निकलने लगीं। एक वाचाल दासी बोल उठी- 'कलाकार महाराज ! हमारी प्रिय सखी नाम से ही सुकुमारी नहीं हैं, रूप और देह से भी सुकुमारी ही हैं । ' 'तुम अपनी सखी की चिन्ता मत करो। यह तो मेरे जीवन की सौरभ है । ' वाचाल सखी तत्काल खण्ड से बाहर आ गई और शयनखण्ड का द्वार बन्द कर सांकल लगा दी। विक्रम मुग्ध नयनों से प्रिया की ओर देखते हुए निकट आए और राजकन्या के कंधे पर हाथ रखकर कहा- 'प्रिये!' पुरुष का प्रथम स्पर्श ! सुकुमारी का शरीर वीणा के तारों की तरह झनझना उठा। विक्रम दोनों हाथों से पत्नी को अपनी ओर खींचें, उससे पहले ही सुकुमारी छूटकर एक थाल के पास पहुंची और दोनों हाथों से एक पुष्पमाला उठा लायी । हृदय में अदृश्य हर्ष का सागर हिलोरें ले रहा था। आनन्द की ऊर्मियां उछल रही थीं। भावना उल्लसित हो रही थी। फिर भी हाथ में पकड़ी हुई माला कंपित हो रही थी । नयनों में और मन में शोभित नारीसुलभ लज्जा मानो पुष्पमाला सेतिर - नितरकर बह रही थी । विक्रम भी उस थाल के पास आए और उसमें पड़ी दूसरी पुष्पमाला उठा लाए। इतना ही नहीं, प्रिया अपने प्रियतम को माला पहनाए, उससे पूर्व ही विक्रम लज्जारक्त वदन से शोभायमान सुकुमारी के कंठ में माला पहनाते हुए बोले- 'प्रिये ! नर-नारी के जीवन-सौभाग्य के इस प्रथम एकान्त क्षण में पूजा की पहली अधिकारिणी नारी होती है ।' वीर विक्रमादित्य १२६
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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