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भवन में पदार्पण करने के पश्चात् विक्रमादित्य एक खण्ड में गए और प्रतीक रूप से स्थापित कुलदेवी के समक्ष अपनी नवोढ़ा पत्नी के साथ नमस्कार किया।
यहां विक्रमादित्य के साथ कोई मित्र नहीं था-एकमात्र अग्निवैताल वहां उपस्थित था। वह अत्यन्त उत्साहपूर्वक साथ रह रहा था। कुलदेवी को नमन करने का कार्य पूरा कर अपनी मुख्य दासियों के साथ सुकुमारी एक खण्ड में गई।
विक्रमादित्य और अग्निवैताल भी एक कक्ष में गए। वहां राज्य के मंत्री, युवराज आदि आए हुए थे। उनके साथ घटिका पर्यन्त बातचीत कर विक्रमादित्य ने सबको विसर्जित किया।
दोनों मित्र अकेले हुए, तब अग्निवैताल बोला-'महाराज! आपकी साधना पूरी हुई। वास्तव में आपने एक नारीरत्न प्राप्त किया है।'
___ 'मित्र! मेरी साधना का बल तो तुम ही हो। तुम्हारी कृपा से ही मैं विश्व की इस श्रेष्ठ सुन्दरी को प्राप्त कर सका हूं-तुम्हारे उपकार को मैं कभी नहीं भूलूंगा।' विक्रम ने अत्यन्त भावप्रवण स्वरों में कहा।
'महाराज! जहां निर्मल मैत्री होती है, वहां उपचार या आभार जैसा कुछ नहीं रहता। मैं तो आप-जैसे पराक्रमी राजा को मित्र बनाकर धन्यता का अनुभव कर रहा हूं। यदि आपके परिचय में मैं नहीं आता तो मेरी शक्ति बुरे कार्यों में ही लगती। वास्तव में आपके उपकार का बदला मैं भव-भवान्तर में भी नहीं चुका पाऊंगा।' अग्निवैताल ने प्रसन्न स्वरों में कहा।
विक्रम ने मित्र के कंधे पर हाथ रखकर कहा-'मित्र! अभी तक तुमने भोजन भी नहीं किया।'
'आपकी साधना की परिणति से मैं अत्यन्त तृप्त हो गया हूं।'
'तुम्हारे शयनकक्ष में भोजन की सारी सामग्री रखी हुई है। तुम यदि भोजन नहीं करोगे तो मुझे चिन्ता सताती रहेगी।'
'मैं अवश्य ही भोजन करूंगा, परन्तु...।' 'बोलो, क्यों हिचकिचाते हो?' 'आप यहां कब तक रुकेंगे?'
'मित्र! मैंने राजकन्या के मन से द्वेषभाव दूर किया है, किन्तु उसके अन्त:करण में अभी राजाओं और राजकुमारों के प्रति विराग है, उसे भी मिटाना है। मुझे यहां लगभग दो महीने तो रुकना ही पड़ेगा।' । 'दे महीने रुकेंगे?'
'हां, ऐसा मेरा अनुमान है। मैंने विक्रमा के रूप में इसके साथ बहुत चर्चाएं की हैं। आज विजयसिंह के रूप में बातें करूंगा....और विक्रमादित्य के रूप में कब चर्चा कर पाऊंगा, यह एक प्रश्न है।'
१२८ वीर विक्रमादित्य