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सभी अपने-अपने स्थान पर गद्दी बिछाकर सो गए। अग्निवैताल ने अपनी इच्छाशक्ति के प्रभाव से विक्रम के अतिरिक्त सबको निद्राधीन कर दिया ।
फिर दोनों मित्र बात करने लगे ।
पश्चिम रात्रि के अंतिम प्रहर में अग्निवैताल ने पांचों अश्वों, दोनों नर्तकियों और महामंत्री को अवंती नगरी के परिसर में स्थित एक उपवन में पहुंचा दिया। यहां विक्रमादित्य के वस्त्र, स्वर्णमुद्राओं से भरा थैला और कुछ साधन मात्र रहे।
अग्निवैताल की शक्ति के प्रभाव से जब सब अदृश्य हो गए, तब विक्रमादित्य सुकुमारी की स्मृति करते हुए निद्राधीन हो गए।
प्रात:काल हुआ। पक्षी चहचहाने लगे। पूर्व गगन में उषा की लालिमा बिछ गई ।
विक्रमादित्य जागृत हुए। भगवान् का स्मरण कर अपनी गद्दी तथा ओढ़ने के वस्त्र को समेटकर एक वृक्ष की शाखा पर रख दिया। फिर एक हजार स्वर्णमुद्राएं तथा पहनने के कपड़े बगल में दबाकर वे उपवन के पास बहती छोटी सरिता की ओर गए ।
उन्होंने देखा कि कुछेक पशु खेतों से घर की ओर आ रहे हैं और कुछ कृषक अपने-अपने खेतों की ओर जा रहे हैं।
विक्रमादित्य सरिता के उपकण्ठ में आए। शौच, दंतधावन, स्नान आदि प्रात:कृत्यों से निवृत्त होकर धोती और उत्तरीय को धोकर वहीं सुखा दिया। विक्रमादित्य मात्र क्षत्रिय ही नहीं थे, मात्र नौजवान राजा ही नहीं थे, परन्तु वे समग्र मालवदेश के स्वामी थे- उनके एक इशारे पर हजारों दास-दासी सेवा के लिए तत्पर हो जाते, किन्तु वे प्रत्येक परिस्थिति के अनुसार ढलने वाले महापुरुष थे। एक-दो घटिका के बाद वस्त्र सूख गए। उन्हें एक पोटली में बांधकर वे गांव की ओर चल पड़े । गांव वहां से आधा कोस दूर था - गांव का परिसर सुन्दर और रमणीय था। लोगों के चेहरों पर आनन्द और संतोष का अपूर्व संगम दृष्टिगोचर होता था ।
यह गांव महाराजा शालिवाहन के राज्य का सीमावर्ती था - गांव का बाजार बहुत बड़ा नहीं था, फिर भी वह सुन्दर था। हलवाइयों की दूकानें खुल चुकी थीं। विक्रमादित्य ने एक हलवाई से मिठाई खरीदी। फिर एक छोटी-सी पांथशाला में जाकर कलेवा किया, जलपान कर निवृत्त हो गए।
पांथशाला का मुनीम एक वृद्ध था । विक्रमादित्य ने पूछा- 'क्यों, यहां घोड़े मोल मिल सकते हैं ?'
११८ वीर विक्रमादित्य