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________________ 'हां, इसीलिए विवाह करने के पश्चात् भी मैं यहां दो-चार महीने रुकना चाहता हूं और उसके मन को पूरा पढ़ लेने के पश्चात् ही मैं अपना असली परिचय दूंगा।' विक्रम ने कहा। ___ 'ओह महाराज! यह तो असमय में एक नया प्रश्न खड़ा हो गया।' भट्टमात्र ने कहा। 'इसीलिए मैं सबको विदा कर रहा हूं।' विक्रम बोले। 'किन्तु आपकी यह दीर्घकालीन अनुपस्थिति राज-व्यवस्था के लिए बाधक होगी!' बीच ही में विक्रम ने कहा- 'आप हैं, अन्य मंत्री भी हैं। मैं मन-ही-मन यह निश्चय कर लिया है कि मैं यहां तीन महीने से अधिक नहीं रुकुंगा। हम यदि अवंती से यहां पैदल आते तो आज तक यहां नहीं पहुंच पाते।' 'यह तो ठीक है!' 'और मेरा महान् मित्र अग्निवैताल आप सबको आज ही अवंती की सीमा में पहुंचा देगा। सूर्योदय से पूर्व तो यह मेरे पास आ ही जाएगा। विक्रम ने कहा। तत्काल अग्निवैताल बोला- 'महाराज! आप महादेवी को कुछ संदेश देने वाले थे....!' 'हां, तुझे यहां का कुशलक्षेम कहना है और अभी तीन माह लगेंगे, ऐसा महादेवी को बताना है।' 'तो फिर मैं सूर्योदय से पूर्व यहां कैसे पहुंच सकूँगा?' 'ठीक है, भले ही विलम्ब हो। मैं इसी गांव में रहूंगा-तुझे इन पांचों अश्वों को साथ ले जाना है।' . 'पांचों? फिर आप क्या करेंगे?' 'हम यहां से दो अश्व दूसरे ले लेंगे। इन अश्वों को लेकर यदि हम लौटेंगे तो अवश्य पहचाने जाएंगे।' 'तो क्या मैं अवंती से दो दूसरे अश्व भेज दूं?' भट्टमात्र ने पूछा। 'नहीं, वहां से कुछ भी नहीं भेजना है- मेरे पास स्वर्णमुद्राएं उचित मात्रा में हैं। उत्तम वीणा और मृदंग आदि सारे साधन यहीं उपलब्ध हो जाएंगे।' विक्रम ने कहा। इस प्रकार चर्चा करते-करते रात्रि का दूसरा प्रहर बीत गया। विक्रम ने अग्निवैताल से भोजन करने का आग्रह किया। अग्निवैताल मिठाइयों से भरे करंडक लेकर एक वृक्ष के पास गया और कुछ ही क्षणों में मिठाई चट कर आ गया। वीर विक्रमादित्य ११७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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