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सभी दर्शक समय और परिस्थिति का भान भूलकर केवल गायिका में ही तन्मय हो चुके थे।
चार घटिका पर्यन्त मेघमल्हार राग की आराधना कर विक्रमा ने विराम लिया।
अकाल में होने वाली वर्षा के चमत्कार से सब अभिभूत थे।
अग्निवैताल ने अपनी माया समेटी। वर्षा शान्त हो गई। राजकन्या ने अपने गले की मुक्तामाला विक्रमा के गले में पहना दी।
सभी दर्शकों ने विक्रमा की आराधना को सराहा और इस दृश्य को साक्षात् कर अपने जीवन को धन्य माना।
महाराजा ने रत्नहार और महारानी ने वज्र की अंगूठी देवी विक्रमा को अर्पित की।
महाराजा और महारानी ने अपनी प्रिय पुत्री सुकुमारी को छाती से लगाते हुए कहा
'बेटी! आज हमारी महान् चिन्ता दूर हो गई। अब तू अपने संकल्प पर दृढ़ रहना।'
राजकन्या ने माता-पिता का चरण-स्पर्श किया। माता बोली-'बेटी! अब तुझे इस एकातवास में क्यों रहना चाहिए?' 'हां, हां!....मैं किसी शुभ दिन राजभवन में आ जाऊंगी।'
सबको ससम्मान प्रस्थित कर राजकुमारी और विक्रमा-दोनों शयनकक्ष की ओर गईं।
रात्रि का तीसरा प्रहर बीत चुका था। राजकन्या ने अपने शयनकक्ष में जातेजाते कहा
'प्रिय सखी! आज जब मैंने तुम्हारे कण्ठों में मुक्तमाला पहनाई, तब मेरे मन में क्या-क्या विचार उठ रहे थे, वे बताऊँ ?'
विक्रमा ने प्रश्नभरी दृष्टि से राजकन्या की ओर देखा।
राजकुमारी बोली-'उस समय मेरे मन में आया कि यदि तुम कोई कलाकार पुरुष होते तो आज अवश्य ही तुम्हारे गले में मैं वरमाला डाल देती। तुम्हें अपने प्रियतम के रूप में स्वीकार कर लेती।'
"और यदि मैं कोई राजा या राजकुमार होता तो....?' विक्रमा ने हंसते हुए कहा।
'तब तो मेरे भवन की रक्षिका से तुम्हारा सिर धड़ से अलग करा देती।' सुकुमारी ने हंसते-हंसते उत्तर दिया। ११२ वीर विक्रमादित्य