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________________ 'क्यों?' 'कल मुझे राजकन्या का मनोरंजन करना होगा। तुम्हें भी चमत्कार दिखाना होगा।' 'तब तो मुझे भी आनन्द होगा। कोई ऐसा राग आप निकालें, जिसमें चमत्कार दिखाने का पूरा अवकाश हो।' 'कल तो मैं प्रचलित राग में ही गाऊंगा, परन्तु जब मैं मेघमल्हार की आराधना प्रारम्भ करूं तब तुमको मेघ-गर्जना का चमत्कार दिखाना है।' 'वर्षा तो नहीं करनी है?' 'यह कैसे शक्य हो सकता है ?' 'मैं राजकुमारी के प्रासाद के चारों ओर वर्षा करने में समर्थ हूं।' 'तब तो बहुत आनन्द आयेगा। क्योंकि मेघ-मल्हार की यही परिणति है। किन्तु इसकी आराधना अत्यन्त कठिन है, इसलिए विरल साधक ही वर्षा करा सकता है।' विक्रमा ने कहा। अग्निवैताल ने हंसते हुए कहा-'आप भी विरल ही हैं न! एक राजकन्या के लिए किसी ने ऐसी आराधना की हो, ऐसा मैंने आज तक नहीं सुना।' __ "सत्य कहते हो, मित्र! किन्तु ऐसा करना मेरे लिए अनिवार्य हो गया है, क्योंकि किसी के अनुभव को तोड़ना सरल नहीं है।' इस प्रकार अनेक चर्चाएं कर अग्निवैताल अदृश्य हो गया। और विक्रमादित्य राजकन्या के मन का परिष्कार कैसे किया जाए-इस विषय का चिन्तन करतेकरते निद्रादेवी की गोद में चला गया। सूर्योदय हुआ। स्नान आदि से निवृत्त होकर राजकन्या और विक्रम ने साथ बैठकर प्रातराश लिया और फिर दोनों एकान्त में एक लता-मण्डप में जा बैठ गए। ___राजकन्या ने कहा-'बोलो, सखी! तुम्हें जो कुछ कहना हो, वह नि:संकोच भाव से कहो। इस प्रकार सात-सात भवों तक कठोर वेदना को भोगना किसी दुष्कर्म का फल है। ऐसा सभी कहते हैं। मैं जिन-प्रवचन की आराधक हूं, इसलिए मैं भी यही मानती हूं।' विक्रमा बोली- 'राजकुमारी जी! आपने जो सात भवों की अपनी व्यथा सुनाई, वह एक निगूढ सत्य है। प्रत्येक जीव व्यथा का किसी-न-किसी रूप में अनुभव करता ही है। आपने जो अपना अनुभव बताया, वह आश्चर्यकारी नहीं है। यदि मुझे जाति-स्मरण-ज्ञान प्राप्त हो तो संभव है मेरा अनुभव आपके अनुभव से भी अधिक वेदनामय हो।' १०२ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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