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________________ "ठीक है, इसीलिए तो ज्ञानी व्यक्तियों ने संसार को एक तूफानी सागर की उपमा से उपमित किया है।' 'किन्तु आपके अनुभव के पीछे आपके प्राणों में मनुष्य जाति के प्रति जो घृणा है, वही वेदना का मुख्य कारण है।' 'सखी....!' राजकुमारी ने आश्चर्य भरे स्वरों में कहा। 'मैंने पहले ही आपसे अभय की प्रार्थना कर ली है।' विक्रमा ने कहा। 'विक्रमा ! मुझे दु:ख नहीं, आश्चर्य होता है।' 'अनेक बार ऐसा होता है कि मनुष्य सत्य से भटक उठता है। पूर्व के छह भवों में आपने जिन-जिन पुरुषों के साथ परिचय प्राप्त किया है, वे सभी पुरुष आपकी तरह एक ही जीव-रूप में तो नहीं थे न?' 'हां।' 'आपने देवलोक में जन्म लिया। आपके पति देव विभावसु के हृदय में आपके प्रति कोई प्रीति नहीं रही, किन्तु वे अपनी अन्य प्रियतमा के प्रति तो मुग्ध थे। इसका यह अर्थ होता है कि उनके मन में नारी के प्रति द्वेष या विराग नहीं था, केवल आप ही उनका प्रेम प्राप्त नहीं कर सकीं। छहों भवों में भिन्न-भिन्न पुरुषों ने आपके प्रति उदासीनता बरती, आपके प्रति अनुराग नहीं दिखाया। इसका मुख्य कारण आपका ही कोई सुप्त दोष होना चाहिए। बाल्यावस्था में आपको जातिस्मृति-ज्ञान की उपलब्धि हुई और आपने अपने अनुभव के आधार पर अपने मन में पुरुषों की विकृत छवि अंकित कर ली, आपके हृदय में द्वेष की चिनगारी प्रकट हो गयी....द्वेष शुभ भावनाओं को राख बना डालता है। छहों भवों में आपके हृदय में पुरुष के प्रति दु:ख रहा। इस दु:ख की पृष्ठभूमि में द्वेष-रूपी राक्षस खेल रहा था। वही इस सातवें भव में उग्ररूप से प्रकट हुआ है। आपका हृदय कोमल और पवित्र है। किन्तु आज वह उस दैत्य के वश में आ गया है। राजकुमारी जी! मेरा एक प्रश्न है कि आपको मात्र छह पुरुषों का अनुभव है, जबकि संसार में अनेक पुरुष निवास करते हैं। आपके महान् पिता भी एक पुरुष हैं। आप एक बार उनकी ओर दृष्टिपात करें। क्या वे आपकी माता को तनिक भी दु:ख देते हैं?' राजकुमारी मंत्रमुग्ध होकर विक्रमा की बातें सुन रही थी। विक्रमा बोली- 'यदि आप वेश-परिवर्तन कर मेरे साथ नगरी में चलें, तो मैं आपको ऐसी अनेक स्त्रियां बताऊंगी, जो अपने पति को इशारों पर नचाती हैं, अपने मन के अनुसार उनसे कार्य लेती हैं अथवा उनको पीड़ा पहुंचाती हैं और मैं आपको ऐसे पुरुष भी बता सकती हूं, जो अपनी प्रिया को हृदय में झुलाते हैं, और गौरव का अनुभव करते हैं।' वीर विक्रमादित्य १०३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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