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दोनों शयनगृह में आयीं। विक्रमा की शय्या राजकुमारी के पास ही थी। यह देखकर विक्रमारूपी-विक्रमादित्य का मन कुछ व्याकुल हुआ- स्वयं पुरुष है, इस सुन्दरी सुकुमारी का आकर्षण भी अपार है- एकान्त में यदि मन का बंधन ढीला हो जाए तो विचित्र परिणाम आ सकता है। विक्रमा ने कहा- 'राजकुमारी! मेरी एक प्रार्थना है।'
'कहो।' 'मेरी शय्या किसी अन्य खंड में करवा दें तो अच्छा रहेगा।' 'क्यों ? हम दोनों बातें करती-करती सो जाएंगी।' .
'मुझे कोई दूसरी आपत्ति नहीं है, किन्तु मेरी प्रकृति की एक कमजोरी है। यदि मेरी शय्या के पास किसी भी दूसरे की शय्या होती है तो मुझे नींद आती ही नहीं।'
'वाह, यह तो खूब कहा। किन्तु एक ही खण्ड में यदि दो स्त्रियां सो रही हों तो....?'
'इसीलिए तो मैंने कहा कि मेरी प्रकृति की कमजोरी है।' हंसते हुए विक्रमा ने कहा।
'अच्छा' कहकर राजकुमारी ने माधवी को बुलाकर देवी विक्रमा की शय्या दूसरे खण्ड में करने की आज्ञा दी।
तत्पश्चात् कुछ समय तक दोनों अवंती नगरी के विषय की बातचीत करती रहीं, फिर विक्रमा अपने शयन-खण्ड की ओर गई।
शयन-खण्ड का द्वार बंद कर विक्रमा जब अपनी शय्या पर सो गई, तब तत्काल अग्निवैताल प्रकट हुआ और बोला- 'महाराज! क्या कुछ आशा दीख रही है?'
'आओ, मित्र! आशा तो है ही। महामंत्री तो कुशल हैं न?'
'ब्राह्मण का जीव है-बेचारा आकुल-व्याकुल हो रहा है। रूपमाला के घर में अकेले रहना, कुछ भी काम नहीं-किसी के साथ बोलचाल नहीं, फिर अकुलाहट क्यों न हो?' अग्निवैताल ने कहा।
'अब केवल चार-पांच दिनों में ही यह समस्या समाहित हो जायेगी। अभी तुम्हें भोजन के लिए जाना ही है।'
'हां, अभी दो घटिका शेष हैं। पहले मैं भट्टमात्र के पास जाऊंगा, फिर भोजन ले आऊंगा और.....।'
'तुम्हें कहीं जाना हो तो चले जाना। तुम्हारी आवश्यकता अब कल ही होगी।'
वीर विक्रमादित्य १०१