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बच्चे पैदा हुए। दोनों के पोषण के लिए मुझे ही सारा श्रम करना पड़ता। मेरा पति कुछ भी श्रम नहीं करता था। अभी बच्चे उड़ने की स्थिति में नहीं थे। अचानक दावानल से सारा वन-प्रदेश जलने लगा। मैंने पति से कहा-'दावानल निकट हा रहा है। हमें बच्चों को लेकर किसी निरापद स्थान में चले जाना है। एक बच्चे को तुम लेकर उड़ो और एक को लेकर मैं उडूंगी।
किन्तु मेरा पति अत्यन्त स्वार्थी था। उसने मेरी बात सुनी-अनसनी कर दी। दावानल आगे से आगे बढ़ रहा था। मैं अकेली दोनों बच्चों को लेकर उड़ सकने में असमर्थ थी। पति मान नहीं रहा था। मेरा दिल व्यथा से छटपटाने लगा। मौत सामने दीख रही थी। मैं अपने दोनों बच्चों को अपने पंखों से ढंक परमात्मा का स्मरण करने लगी। कुछ ही क्षणों के पश्चात् दावानल की आग में मैं अपने दोनों बच्चों के साथ जलकर भस्म हो गई। मरते समय मेरा मन शुभ ध्यान में तल्लीन था। मैं मरकर इस सातवें भव में इसी नगरी के महाराज शालिवाहन के घर पुत्री के रूप में जन्मी। कर्मों की विडम्बना ! सात-सात भवों में मैं स्त्री रूप में ही जन्म लेती रही हूं और पिछले छह भवों का जो भयप्रद अनुभव हुआ है, यदि मैं जाति-स्मरणज्ञान के द्वारा उन भवों को नहीं देख पाती तो इस जन्म में भी मैं किसी ऐसे ही पुरुष के साथ विवाह कर उसी प्रकार की व्यथा भुगतती।'
विक्रमारूपी विक्रमादित्य विचारमग्न हो गए। उसने सोचा- एक ही जीव को बार-बार यदि ऐसा अनुभव होता है तो निश्चय ही वह पुरुष जाति के प्रति विश्वास रख ही नहीं सकता। फिर भी मुझे दक्षिण भारत की इस सुन्दरी के मन को योग्य मार्ग पर लगाना है, किन्तु किस उपाय से?
विक्रमा को विचारमग्न देखकर राजकुमारी ने पूछा-'तुम्हें मेरी अन्तव्यथा का परिचय तो हो ही गया होगा?'
___ 'हां, राजकुमारीजी! यह अत्यन्त करुण और दारुण वेदना है। किन्तु यदि आप धैर्यपूर्वक सुनें तो मैं आपको इन सात भवों का रहस्य समझाना चाहती हूं।'
'सखी! मैं धैर्यपूर्वक सुनूंगी और यदि तुम्हारी बातों में तथ्य होगा तो मैं अवश्य ही स्वीकार करूंगी।'
___ 'मैं धन्य हुई-किन्तु मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि चर्चा लम्बी होगी, इसलिए आप चाहें तो कल....।'
_ 'ओह! तुमने कल रात जागरण किया था, यह मुझे याद ही नहीं रहा। हम कल चर्चा करेंगी-आज तुम आराम करो। चलो, हम दोनों शयनगृह में चलें।'
विक्रमा को भी इस अनुभव-कथा पर विचार-मंथन करना था, इसलिए वह जाने के लिए तत्पर हो गयी।
१०० वीर विक्रमादित्य