SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्यश्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा ___आकाशवाणी सुनकर राजा का अज्ञानान्धकार तुरन्त नष्ट हो गया, और उसके हृदय में कोई अपूर्व प्रकाश प्रकट हुआ। वह विचारने लगा। कवालीयोरागसमस्ति यताऽऽत्मनो नूनं कोऽपि महिमूर्ध्याहो महिमा ।। स्थायी।। न स विलापी न मुद्वापी दृश्यवस्तुनि किल कदापि। समन्तात्तत्र विधिशापिन्यदृश्ये स्वात्मनीव हि मा ।। समस्ति.||1|| सुदर्शनो. सर्ग. 81 जितेन्द्रिय महापुरूषों की संसार में कोई अपूर्व ही महिमा है, जो इन बाहरी दृश्य वस्तुओं पर प्रतिकूलता के समय न कभी विलाप करते हैं और न अनुकूलता के समय हर्षित होते हैं। वे तो इस सम्पत्ति-विपत्ति को अदृश्य (विधि) का शाप समझकर सर्व ओर से अपने मन का निग्रह कर आत्मचिन्तन में निमग्न रहते हैं। इत्येवं बहुशः स्तुत्वा निपपात स पादयोः। आग संशुद्धये राजा सुदर्शनमहात्मनः ।। 12 || . ___ सुदर्शनो. सर्ग. 8। हे सुदर्शन ! मया यदुत्कृतं क्षम्यतामितिविमत्युपार्जितम् । हृत्तु मोहतमसा समावृतं त्वं हि गच्छ कुरू राज्यमप्यतः ।। 13 ।। - सुदर्शनो. सर्ग. 81 इस प्रकार बहुत भक्ति-पूर्वक सुदर्शन की स्तुति करके वह राजा अपने अपराध को क्षमा कराने के लिये महात्मा सुदर्शन के चरणों में गिर गया और कहने लगा कि हे सुदर्शन ! मैंने कुबुद्धि के वश होकर जो तुम्हारे साथ अपराध किया है, उसे क्षमा करो। मैं उस समय मोहान्धकार से घिरा था। आज से तुम्हीं राज्य करो। सुदर्शनोदय में गृहस्थाचार __महाकवि ज्ञानसागर ने अपनी रचनाओं में अनेक विषयों का वर्णन करने के साथ-साथ गृहस्थाचार का भी वर्णन किया है। गृहस्थ का
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy