SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्यश्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा में कल्पवृक्ष, तृतीय में सागर, चतुर्थ में निर्धूम अग्नि, और पंचम स्वप्न में आकाश में घूमते हुये विमान को देखा है। सेठानी की बात सुनकर सेठ ने कहा कि तुमने जिन स्वप्नों को देखा है उनका अभिप्राय कोई भी साधारण मनुष्य नहीं जान सकता। अतएव उनका ठीक-ठीक अभिप्राय जानने के लिये हम योगिराज के पास चलें। तत्पश्चात् वे दोनों ही जैनमन्दिर में पूजन कर योगिराज के दर्शन के लिये गये। मुनिराज के पास जाकर उन दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। सेठ ने मुनिराज से निवेदन किया कि मेरी पत्नी जिनमति ने रात्रि में सुमेरू पर्वत, कल्पवृक्ष, सागर, निधूम-अग्नि और आकाशचारी विमान- इन पाँच को स्वप्नों में देखा है। हम इनका फल जानने आपके पास आये हैं। कृपया आप हमें इनका अभिप्राय समझा दीजिये। मुनिराज बोले कि तुम्हारी पत्नी द्वारा देखे स्वप्नों का तात्पर्य है कि वह योग्य पुत्र को जन्म देगी। स्वप्न में देखे गये सुमेरू, कल्पवृक्ष, सागर, निधूमअग्नि और विमान से क्रमशः तुम्हारे पुत्र का धैर्य, दानशीलता, रत्नबहुलता, कर्मों का नाश और देवों की प्रिय-पात्रता सूचित होती है। मुनिराज की वाणी सुनकर दोनों अति प्रसन्न हुये और घर वापिस आये। यथासमय जिनमति ने गर्भ धारण किया, जिससे उसका सौन्दर्य भी प्रतिदिन बढ़ने लगा। सेठ वृषभदास पत्नी को गर्भवती जानकर बहुत प्रसन्न हुए और यत्नपूर्वक उसका संरक्षण करने लगे। (द्वितीय सर्ग). समय आने पर एक दिन शुभ मुहूर्त में जिनमति ने एक सुन्दर पुत्र . को जन्म दिया। पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाकर वृषभदास अत्यन्त हर्षित हुए। उन्होंने जिनेन्द्रदेव की पूजन कर अत्यधिक दान दिया। घर में वृद्ध महिलाओं ने मंगलदीप प्रज्ज्वलित किये। वृषभदास ने प्रसूति कक्ष में पहुँचकर पत्नी और पुत्र पर गन्धोदक छिड़का। जिनदर्शन के फलस्वरूप पुत्र-प्राप्ति को स्वीकार करके सेठ ने पुत्र का नाम भी सुदर्शन रखा। : बालक अपनी मनोहर चेष्टाओं से घर के सभी लोगों को हर्षित करने लगा। शैशवावस्था समाप्त होने पर कुमार सुदर्शन को विद्याध्ययन के लिये गुरू के पास भेजा गया। शीघ्र ही माँ शारदा के अनुग्रह से वह सभी विद्याओं में पारंगत हो गया।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy