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________________ 56 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन के अन्त तक लगभग 2500 वर्षों के दीर्घकाल में जैन मनीषियों ने प्राकृत, संस्कृत के जिन विपुल वाङ्मय का निर्माण किया, उसे प्रमुख तीन भागों में बाँटा है, पहला आगमिक, दूसरा अनुआगमिक, तीसरा आगमेतर। सूक्तियाँ - 1. कर्तव्यमन्चेत् सततं प्रसन्नः – (वीरो. सर्ग. 17 श्लोक 10) सदा प्रसन्न रहकर अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये। 2. गुणभूमिर्हि भवेद्विनीततता – (वीरो. सर्ग. 7 श्लोक 5) विनीतता अर्थात् सज्जनों के गुणों के प्रति आदर भाव प्रगट करना ही समस्त गुणों का आधार है। 3. गुणं सदैवानुसरेदरोषम् – (वीरो. सर्ग 17 श्लोक 9) दूसरों के गुणों का ईर्ष्या रोष आदि से रहित होकर अनुसरण करना चाहिए। 4. तुल्यावस्था न सर्वेषां, किन्तु सर्वेऽपि भागिनः – (वीरो.सर्ग. 17 श्लोक 41) कर्म के उदय से जीव की दशा कभी एक-सी नहीं रह पाती, हमेंशा परिवर्तन होता रहता है। 5. गतं. न शोच्य विदुषा समस्तु गन्तव्यमेवाऽऽश्रयणीयवस्तु – (वीरो. सर्ग 14 श्लोक 34) विद्वान को बीत गई बात का शोक नहीं करना चाहिये और अपने गन्तव्य मार्ग पर ही आगे बढ़ना चाहिये। 6. कस्मै भवेत्कः सुखदुःख कर्ता, स्वकर्मणोंऽगी परिपाकभर्ता – (वीरो. सर्ग. 16 श्लोक 10) कौन किसके लिये सुख या दुःख देता है ? प्रत्येक प्राणी अपने-अपने किये कर्मों के परिपाक को भोगता है। सन्दर्भ - 1. महाकवि ज्ञानसागर के काव्य एक अध्ययन, पृ. 18-36 | 2. जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक, अध्ययन, पृ. 501
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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