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वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन इस समय उन दोनों को दिव्यज्ञान की प्राप्ति भी हो गई। (त्रयोविशंति सर्ग)
... दिव्यज्ञान की सहायता से जयकुमार और सुलोचना तीर्थयात्रा के लिये गए। सुमेरू, उदयांचल आदि में विहार करते हुये वे हिमालय पर पहुँचे। वहाँ एक मन्दिर में जाकर विधिपूर्वक जिनन्द्रदेव की पूजा अर्चना की। तत्पश्चात् पर्वत पर विहार करते हुए वे दोनों एक दूसरे से कुछ दूर हो गये। इसी समय सौधर्मेन्द्र की सभा में जयकुमार के शील की प्रशंसा की जा रही थी, जिसे सुनकर रविप्रभ देव ने अपनी पत्नी काँचना को जयकुमार के शील की परीक्षा लेने के लिये भेजा। उसने वहाँ आकर अपनी मन-गढन्त कहानी जयकुमार को सुनायी और भिन्न-भिन्न प्रकार की काम-चेष्टाओं से विचलित करना चाहा, परन्तु जयकुमार के हृदय पर उसके वचनों और चेष्टाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उलटे उसने उसके व्यवहार की निन्दा की और उसे स्त्रियों के सदआचरण की गक्षा दी। पर जयकुमार के उदासीन वचनों को सुनकर राक्षसी का रूप धारण कर वह जयकुमार को उठाकर जाने लगी तब सुलोचना ने वहाँ पहुँचकर उसकी बड़ी भर्त्सना की। सुलोचना के शील के माहात्म्य से उसने जयकुमार को छोड़ दिया। उसने असलीरूप में प्रकट होकर जयकुमार की प्रशंसा की और चली गई। अपनी पत्नी से जयकुमार के निष्काम भाव को जानकर रविप्रभ देव ने भी आकर जयकुमार की पूजा की। इस प्रकार तीर्थों में विहार करके जयकुमार अपने नगर में लौट आये और सुलोचना के साथ सुखपूर्वक रहने लगे। (चतुर्विशति सर्ग)
सांसारिक भोग-विलासों की निःसारता को देखकर जयकुमार के मन में एक दिन वैराग्यभाव जागा और वस्तुतत्त्व का चिन्तन करते हुए वन जाने की इच्छा की। (पंचविंशति सर्ग) अपने पुत्र अनन्तवीर्य का राज्याभिषेक कर वे वन की ओर चल पड़े। हस्तिनापुर की प्रजा ने हर्ष और विषाद-इन दो विरोधी भावों का, साथ-साथ अनुभव किया। वन में जयकुमार भगवान ऋषभदेव के पास गये। उनकी भक्तिपूर्वक स्तुति की
और कल्याण-मार्ग के विषय में पूछा। (षड्विंशति सर्ग) भगवान ऋषभदेव ने जयकुमार को धर्म का स्वरूप बतलाया। जिसे सुनकर वे