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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन स्वयंवर समारोह में अनेक देशों के कुलीन राजकुमार भी कन्या-वरण करने इस स्वयंवर में पहुंचे थे। काशी-नरेश ने उन सबका स्वागत किया। जैसे ही जयकुमार सभा-मण्डप में पहुँचा, सभी उपस्थित जनों का मन उसे देखकर प्रतिद्वन्दिता से परिपूर्ण हो गया। राजा के यहाँ उपस्थित देव (जो पहले काशी-नरेश का भाई था) ने सुलोचना को सभामण्डप में चलने का आदेश दिया। कचुंकी द्वारा निर्दिष्ट मार्ग से सुलोचना सखियों के साथ जिनन्द्रदेव का पूजन कर सभा-मण्डप में पहुँची। (पंचम सर्ग)
सुलोचना सभाभवन में विद्या नाम की परिचारिका के साथ कचुंकी के द्वारा बताये मार्ग पर चलने लगी। विद्या देवी ने सुलोचना को आकाशचारी विद्याधरों और भूमिचारी राजाओं को दिखाकर सर्वप्रथम सुनमि और विनमि का परिचय दिया। विद्याधर राजाओं में सुलोचना की . रूचि न देखकर उसने पृथ्वी के राजाओं का परिचय कराया। उसने क्रमशः भरत के पुत्र अर्ककीर्ति तथा कलिंग, काँची, काबुल, अंग, वंग, सिन्धु, काश्मीर, कर्णाटक, मालव, कैराव आदि देशों से आये राजाओं के गुणों का विस्तार से वर्णन किया। सुलोचना जब जयकुमार के पास पहुंची तो विद्यादेवी ने सुलोचना का मन जयकुमार के अनुकूल पाकर, विस्तार-पूर्वक उनके गुणों का वर्णन किया। विद्यादेवी से प्रेरित होकर उसने जयकुमार के गले में जयमाला डाल दी। उसी समय हर्ष-पूर्वक नगाड़े जोर-जोर से बजने लगे। जयकुमार का मुख कान्तियुक्त हो गया, पर अन्य राजाओं के मुखमण्डल म्लान हो गये। (षष्ठ सर्ग)
अर्ककीर्ति के सेवक दुर्मर्षण को यह स्वयंवर-समारोह काशी-नरेश की पूर्व नियोजित योजना लगा। उसने अर्ककीर्ति से कहा कि चक्रवर्ती के पुत्र आप को छोड़कर सुलोचना ने जयकुमार का वरण किया है। जयकुमार जैसे तो आपके कितने ही सेवक होंगे। फिर कुल की उपेक्षा भी ठीक नहीं। दुर्मर्षण के वचनों से उत्तेजित अर्ककीर्ति ने युद्ध के माध्यम से जयकुमार को नीचा दिखाने की ठान ली, परन्तु अनवद्यमति नाम के मंत्री ने समझाया कि काशी-नरेश (अकम्पन) और जयकुमार हमारे अधीनस्थ राजा हैं, जयकुमार की सहायता से भरत ने दिग्विजय करके चक्रवर्ती