________________
आचार्यश्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा
समीप क्षुल्लक दीक्षा ले ली। क्षुल्लक बनने के बाद भूरामल जी ऐलक दशा में भी कुछ समय रहे । ब्रह्मचारी भूरामल से क्रमशः बढ़ते हुये वे मुनिश्री ज्ञानसागर बने । विक्रम सं: 2016 (सन् 1959ई.) में इन्होंने जयपुर में आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज से सर्व परिग्रह त्यागकर दि. मुनिदीक्षा ले ली। उनका नाम मुनिश्री ज्ञानसागर रखा गया। साथ ही उन्हें संघ का उपाध्याय भी बना दिया गया। बाद में वे आचार्य पद पर भी प्रतिष्ठित हुए ।
धीरे-धीरे महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज का शरीर क्षीणता को प्राप्त होने लगा। अपने शिष्यों में उन्हें मुनिश्री 108 विद्यासागर जी ही सर्व श्रेष्ठ लगे। अतः वे दिनांक 22 नवम्बर सन् 1972 ई. (मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया वि. सं. 2020 ) को अपना आचार्य पद अपने शिष्य मुनिश्री 108 विद्यासागर जी को सौंपकर पूर्ण रूपेण वैराग्य, तपश्चरण एवं सल्लेखना में सन्नद्ध हो गये ।
43
सल्लेखना पूज्य विद्यासागर जी महाराज के निर्देशन में चलने लगी । साईटिका से पीड़ित रूग्ण शरीर वाले तपस्वी के कष्टों का आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज बहुत ध्यान रखते थे । वैय्यावृत्ति का यह कार्य नौ माह तक चला। आचार्यश्री ने पहले अन्न त्यागा, फिर छांछ त्यागी, फिर 28 मई 1973 को चारों प्रकार के आहारों का त्याग कर दिया। अन्त में ज्येष्ठ कृष्णा 15 विक्रम संवत् 2023 शुक्रवार (दिनांक 7 जून, 1973) को दिन में 10 बजकर 20 मिनट पर नसीराबाद नगर में समाधिकरण कर वे आत्मतत्त्व में विलीन हो गये ।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि कवि भूरामल शास्त्री को अगाध पाण्डित्य प्राप्त था । उनका, व्याकरण, दर्शन, काव्य, संगीत आदि पर समान अधिकार था। भारतीय संस्कृति के प्रति उनमें अपार श्रद्धा थी । उनके काव्यों में भारतीयता का कोई पक्ष अछूता नहीं रहा । वास्तव में त्याग-तपस्या, उदारता, साहित्य-सर्जना आदि गुणों की साक्षात् मूर्ति महाकवि आचार्य मुनिश्री ज्ञानसागर जी महाराज एवं उनके कार्य स्तुत्य, अनुकरणीय एवं उल्लेखनीय हैं।