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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
प्रस्तुत करता है। वहाँ दूसरी ओर हम इस शोध-प्रबन्ध के द्वारा आचार्य ज्ञानसागर के सम्पूर्ण कृतित्व से भी परिचित होते हैं। इससे ज्ञात होता है कि आचार्य ज्ञानसागर केवल प्राचीन भाषाओं के ही कवि नहीं अपितु जैनधर्म और दर्शन के निष्णात पण्डित थे। वीरोदय महाकाव्य पर प्रस्तुत यह शोध-प्रबन्ध हमें इस बात का भी ज्ञान देता है कि तीर्थंकर महावीर का चरित प्राचीन और आधुनिक कवियों में आकर्षण का केन्द्र रहा है। वीरोदय महाकाव्य प्राचीन कथा-वस्तु को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत करने के साथ-साथ आधुनिक युग में नैतिक और सदाचार की जीवन-पद्धति अपनाने की भी प्रेरणा देता है। सूक्तियाँ - 1. यथा स्वयं वांछति तत्परेभ्यः कुर्याज्जनः केवलकातरेभ्यः । तदेतदेकं खलु धर्ममूलं परन्तु सर्व स्विदमुष्य तूलम् ।। 16/61/ - __ मनुष्य जैसा व्यवहार स्वयं अपने लिये चाहते हैं वैसा ही व्यवहार उसे दूसरे दीन, कायर पुरूषों तक के साथ करना चाहिये। यही एक
तत्त्व धर्म का मूल है और शेष सब कथन तो इसी का विस्तार है। 2. विपदे पुनरेतस्मिन् सम्पदस्सकलास्तदा। संचरेदेव सर्वत्र
विहायोच्चयमीरणः।। 10/11|| __आत्मा को इस शरीर से भिन्न समझ लेने पर सर्व वस्तुएँ सम्पदा के रूप ही हैं। पवन उच्चय (पर्वत) को छोड़कर सर्वत्र संचार करता ही है। भावार्थ - आत्मरूप उच्च तत्त्व पर जिनकी दृष्टि नहीं है और शरीर पर ही जिनका राग है। उन्हें सभी वस्तुएँ विपत्तिमय बनी रहती हैं किन्तु आत्मदर्शी पुरूष को वे ही वस्तुएँ सम्पत्तिरूप हो जाती हैं।