________________
उपसंहार
सर्वाधिक स्थान है। उपेन्द्रवज्रा इन्द्रवज्रा, शार्दूलविक्रीडित, वियोगिनी, अनुष्टुप् इत्यादि छन्दों के प्रयोग में कवि ने अपने पाण्डित्य का अनुपम प्रयोग किया है। कवि का अलंकार - विन्यास अपूर्व है। महाकवि ने उपमा, रूपक, यमक, श्लेष, अर्थान्तरन्यास, भ्रान्मिान, विरोधाभास आदि अलंकारों का प्रयोग करके काव्य को महत्त्वपूर्ण व सुन्दर बना दिया है। अनुप्रास उनका सर्वाधिक प्रिय अलंकार है ।
331
पाँचवें अध्याय में सामाजिक एवं सास्कृतिक विवेचन के अन्तर्गत सामाजिक रीति-रिवाज, वेशभूषा, समाज व सामाजिक संगठन, समाज में अनुशासन, नीतिगत व्यवस्था, रहन-सहन पद्धति का विश्लेषण किया है। धार्मिक अनुष्ठान, व्रत उपवास, तप की साधना से जीवन के विकास की परम्परा को दर्शाया गया है। शिक्षा के सन्दर्भ में गुरू-शिष्य के सम्बन्धों का आदर्श स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। दया, करूणा और सहिष्णुता जैसे मानवीय गुणों को कवि ने प्रमुखता से निरूपित करते हुए कलात्मकता का वर्णन कुशलता से किया है जिसका इस शोध-प्रबन्ध में उल्लेख किया गया है
1
षष्ठ अध्याय में विषय की दार्शनिक विवेचना प्रस्तुत की गई है। धर्म का स्वरूप, धर्म का महत्त्व, देव, शास्त्र, गुरू का स्वरूप, रत्नत्रय का स्वरूप, निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्ग की प्ररूपणा कर, पुण्य और पाप का महत्त्व प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत अध्याय में कर्म - सिद्धान्त की मीमांसा में सात तत्त्वों का निरूपण और ज्ञानावरणादि कर्मों का संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत किया है। सदाचार और शाकाहार जीवन शैली के महत्त्व का वर्णन कर मांसाहार को सर्वथा त्याज्य बतलाकर कवि ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरूषार्थों को प्रमुखता से अपनाने का सन्देश दिया है।
इस प्रकार आचार्य ज्ञानसागरकृत वीरोदय महाकाव्य का मूल्यांकन प्रस्तुत करते समय इस शोध-प्रबन्ध के माध्यम से हमें नई-नई जानकारियों और विशेषताओं का ज्ञान हुआ है । यह शोध प्रबन्ध एक ओर जहाँ प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के चरित - काव्यों की पृष्ठभूमि में बीसवीं शताब्दी में रचित वीरोदय महाकाव्य के काव्यात्मक एवं सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को