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________________ भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन 325 परन्तु अन्य दर्शनों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का वर्णन इस प्रकार किया है - दीपो यथा निर्वत्तिमभ्युपेतौ नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न कांचिद विदिशं न कांचित्स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।। अश्वघोष ने लिखा है कि बुझा हुआ दीपक न तो पृथ्वी में जाता है, न अन्तरिक्ष में, न किसी दिशा में, न विदिशा में, किन्तु तैल के समाप्त हो जाने से शान्त हो जाता है। इसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त व्यक्ति भी न तो पृथ्वी में जाता है, न अन्तरिक्ष में, न किसी दिशा में, न किसी विदिशा में, किन्तु क्लेश के क्षय हो जाने पर शान्ति को प्राप्त हो जाता है। सांख्यों की तरह जैन-परम्परा में पुरूष या आत्मा को सर्वथा अबद्ध नहीं माना है। संसारी अवस्था में अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता आत्मा स्वयं है। नैयायिकों की तरह जैनदष्टि से बुद्धि या ज्ञान आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं है, प्रत्युत उसका अपना स्वरूप है। जैनदृष्टि से मुक्तावस्था में जीव के गुणों का वैशेषिकों की तरह उच्छेद भी नहीं होता प्रत्युत जीव आत्मस्वरूप को प्राप्त करता है। बौद्ध दर्शन की तरह दीपक के बुझ जाने जैसा निर्वाण भी जैन दृष्टि से मान्य नहीं है, क्योंकि जीवन का चरम लक्ष्य श्रेष्ठ और शाश्वत सुख मानने पर ही उस ओर प्रवृत्ति सम्भव है। दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति यदि दीपक के बुझ जाने की तरह है, तब इस प्रकार की दुःख-निवृत्ति की अपेक्षा तो ऐन्द्रिय सुखों की ओर प्रवृत्ति स्वीकार्य हो सकती है। जैनदृष्टि से मोक्ष-दशा प्राप्त होने के बाद आत्मा पुनः कर्मबद्ध नहीं होता। अतः वह जन्म-मरण के दुःखों से सदा के लिए छूट जाता है। ___ मानव-व्यक्तित्व के चरम विकास का नाम मोक्ष है। इसे पाने के लिए जीव को स्वयं पूरूषार्थ करना आवश्यक है। किसी को समर्पण करने से अथवा किसी के अनुग्रह से इसे नहीं पाया जा सकता। इसी प्रकार मात्र सम्यग्दृष्टि या तत्त्वज्ञान से मुक्ति सम्भव नहीं है। मुक्ति के लिए सत्प्रवृत्तियों का पूर्ण विकास अपेक्षित है।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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