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________________ 324 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् । यत्तस्मादविचलनं स एव पुरूषार्थसिद्धियुपायोऽयम् ।। 15 ।। ___-पुरू.सि.उ.। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों दो भागों में विभाजित हैं। एक ओर धर्म और अर्थ, तथा दूसरी ओर काम और मोक्ष हैं। काम का अर्थ है - सांसारिक सुख और मोक्ष का अर्थ है सांसारिक सुख, दुख व बन्धनों से मुक्ति! इन दो परस्पर विरोधी पुरूषार्थों का साधन धर्म है और धर्म से तात्पर्य उन शारीरिक और आध्यात्मिक साधनाओं से है, जिनके द्वारा मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। भारतीय दर्शनों में एक चार्वाक मत ही ऐसा है, जिसने अर्थ द्वारा काम पुरूषार्थ की सिद्धि को ही जीवन का अन्तिम ध्येय माना है; क्योंकि उस मत के अनसार शरीर से भिन्न जीव जैसा कोई पृथक् तत्त्व ही नहीं है। इसीलिये इस मत को नास्तिक कहा गया है। वेदान्त, वैदिक, जैन, बौद्ध जैसे अवैदिक दर्शनों ने जीव को शरीर से भिन्न एक शाश्वत तत्त्व स्वीकार किया है और इसीलिए ये मत आस्तिक कहे गये हैं तथा इन मतों के अनुसार जीव का अन्तिम पुरूषार्थ काम न होकर मोक्ष है, जिसका साधन धर्म को स्वीकार किया गया है। इसी श्रेष्ठता के कारण उसे चारों पुरूषार्थों में प्रथम स्थान दिया गया है और मोक्ष की चरम पुरूषार्थता को सूचित करने के लिए उसे अन्त में रखा गया है। अर्थ और काम ये दोनों साधन हैं। (साध्य जीवन के मध्य की अवस्थाएँ हैं) इसीलिए इनका स्थान पुरूषार्थों के मध्य में है। वीरोदय में पुरूषार्थ चतुष्टय – को कवि ने केवलज्ञान होने पर भगवान के चतुर्मुख द्वारा स्पष्ट किया है – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरूष के हितकारक चारों प्रशस्त पुरूषार्थों को सर्व प्राणियों से कहने के लिए ही मानों वीर भगवान् ने चतुर्मुखता को धारण किया है - धर्मार्थकामामृतसम्भिदस्तान् प्रवक्तुमर्थान् पुरूषस्य शस्तान्। बभार वीरश्चतुराननत्वं हितं प्रकर्तुं प्रति सर्वसत्त्वम् ।। 43।। -वीरो.सर्ग. 121
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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