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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो। पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं।।
-प्रव.सा.गा. 11| असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो। दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिधुदो भमदि अच्वंतं ।।
- प्रव.सा.गा. 121 जब आत्मा राग-द्वेष से युक्त होकर शुभ या अशुभ कार्यों में प्रवृत्त होता है, तब कर्म रूपी धूल ज्ञानावरणादि रूप में उसमें प्रवेश करती है।
परणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो। तं पविसदि कम्मस्स णाणावरणादि - भावेहिं ।।
आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि पाप-पुण्य के सम्बन्ध में एकान्तता नहीं हैं जो ऐसा मानते हैं कि मात्र पर को दुःख देने से पाप तथा सुख देने से पुण्य होता है, तो यह सही सिद्धान्त नहीं है, क्योंकि जब पर में सुख-दुःख का उत्पादन ही पुण्य-पाप का एक मात्र कारण होता है, तो फिर दूध-मलाई तथा विष कण्टादिक, अचेतन पदार्थ जो दूसरों के सुख-दुःख के कारण बनते हैं, उन्हें कोई पुण्य-पाप के बन्ध/कर्ता नहीं मानता। कांटा पैर में चुभ कर दूसरे को दुख उत्पन्न करता है, इतने मात्र से उसे कोई पापी नहीं कहता और न पाप फलदायक कर्म-परमाणु ही उससे आकर चिपटते अथवा बन्ध को प्राप्त होते हैं।
इसी तरह दूध-मलाई बहुतों को आनन्द प्रदान करते हैं, परन्तु उनके इस आनन्द से दूध-मलाई पुण्यात्मा नहीं कहे जाते और उनमें पुण्य फलदायक कर्म परमाणुओं का न ऐसा कोई प्रवेश अथवा संयोग ही होता है, जिसका फल इन्हें बाद में भोगना पड़े। यदि यह कहा जाए कि चेतन ही बन्ध के योग्य होते हैं, अचेतन नहीं तो फिर कषाय रहित वीतरागियों के विषय में आपत्ति को कैसे टाला जायेगा? वे भी अनेक प्रकार से दूसरों के सुख-दुख के कारण बनते हैं। जैसे- किसी सुमुक्ष को मुनि दीक्षा देते हैं, तो उसके अनेक सम्बन्धियों को दुःख पहुँचता है। शिष्यों तथा जनता