________________
315
भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन पुण्य-पाप विवेचना
जैनधर्म में पुण्य और पाप को सात तत्त्वों के साथ गिनकर नव पदार्थ की संज्ञा दी गई है। पुण्य और पाप का निर्धारण शुभ और अशुभ की अवधारणा पर आधारित है तथा शुभ और अशुभ का निर्धारण कर्मसिद्धान्त के आधार पर किया जाता है। दूसरे शब्दों में कर्मों को शुभ और अशुभ, ऐसे दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। शुभ कर्म पुण्य का और अशुभ कर्म पाप का कारण है। यथासुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति हवदि जीवस्स। ___ "शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य"
- त.सू.अ.6 सूत्र-3 पुण्य और पाप संसारी जीव की अपेक्षा से ही निर्धारित किये जाते हैं। मोक्ष की दृष्टि से दोनों ही बन्धन के कारण होने से त्याज्य है। आ. कुन्दकुन्द ने लिखा है कि जिस प्रकार लोहे की बेड़ी पुरूष को बाँधती है और सुवर्ण की भी बाँधती है, उसी प्रकार शुभ-अशुभ कर्म जीव को बांधता है। प्रशस्त राग, अनुकम्पा और कालुष्य-हीनता पुण्य के कारण हैं।
रागो जस्स पसत्थो अणुकंपा-संसिदो य परिणामो। चित्तह्मि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि।।
--पंचा. गा. 135। प्रमाद बहुल प्रवृत्ति, कलुषता, विषयों की लोलुपता, दूसरों को संताप देना, दूसरों का अपवाद करना, आहार आदि संज्ञाएँ, कृष्ण आदि तीन लेश्याएँ, पँचेन्द्रियों की पराधीनता, आर्त-रौद्रध्यान, असत्कार्य में प्रयुक्त ज्ञान और मोह- ये सब पापप्रद हैं।
धर्म-रूप परिणत आत्मा शुद्धोपयोग युक्त होने पर निर्वाण-सुख को तथा शुभोपयोग युक्त होने पर स्वर्ग-सुख को पाता है। अशुभ के उदय से आत्मा कुत्सित नर, तिर्यन्च नारकी होकर हजारों दुःखों से दुखी होता हुआ सदा संसार में परिभ्रमण करता है।