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भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन
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हो जाना सम्यक्चारित्र है। सम्यक्चारित्र अग्नि है, सम्यग्ज्ञान उपाय है तथा सम्यक्त्व रसौषधि है। इन सबके मिलने पर आत्मा-रूपी पारद धातु अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है। आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है कि आत्मस्वरूप में चरण करना सो चारित्र है। स्व समय में प्रवृत्ति करना यह उसका तात्पर्य है और यही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म है। शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना इसका अर्थ है, वही यथावस्थित आत्म-गुरू होने से साम्य है और साम्य दर्शन-मोहनीय तथा चारित्र-मोहनीय के उदय से उत्पन्न होने वाले समस्त मोह और क्षोभ के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकार जीव का परिणाम है। आचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि ज्ञान
और अप्रतिहत दर्शन ये जीव के अनन्य स्वभाव हैं। इनमें निश्चल और अनिन्दित अस्तित्व चारित्र है - जीव-सहावं णाणं अप्पडिहद-दसणं अणण्णमयं । चरियं च तेसु णियदं अत्थित्त-मणिंदियं भणियं ।।
__-पंचा.गा.1541 जीव जिसे जानता है, वह ज्ञान है, जिसे देखता है वह दर्शन है। ज्ञान और दर्शन के संयोग से चारित्र होता है। जीव के ये ज्ञानादि तीनों भाव अक्षय तथा अभेद्य होते हैं - जं जाणह तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं । णाणस्य पिच्छियस्स च समवण्णा होई चारित्तं।।
-चा.प्रा.गा.341 जीव के चारित्र हैं, दर्शन है, ज्ञान है, यह व्यवहार से कहा जाता है। वास्तव में जीव न ज्ञान है, न चारित्र है, न दर्शन है। यह तो शुद्ध स्वरूप है। साधु पुरूष को रत्नत्रय की नित्य आराधना करनी चाहिए। निश्चय से ये तीनों तथा आत्मा एक ही है -
दसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो।।
-समय.गा. 161