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________________ 312 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन जैन आचार्यों ने चारित्र के दो भेद किये हैं। समन्तभद्र ने लिखा है कि चारित्र सकल और विकल के भेद से दो प्रकार का होता है। सर्वसंग-विरत (परिग्रह रहित) अनगारों के लिए सकलचारित्र है तथा ससंग (परिग्रह युक्त) सागारों (गृहस्थों) के लिए विकलचारित्र है। सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानाम्। अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ।। -रत्न.श्रा.श्लो. 501 स्वामीकार्तिकेय ने लिखा है कि सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट धर्म दो प्रकार का है - एक तो परिग्रहासक्त गृहस्थों का और दूसरा परिग्रह रहित मुनियों का। तेणुवइट्ठो धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं। वसुनन्दि ने भी सागर और अनगार के भेद से धर्म (चारित्र) दो प्रकार का बताया है। __सोमदेव ने लिखा है कि अधर्म कार्यों से निवृत्ति और धर्म-कार्यों में प्रवृत्ति होने को चारित्र कहते हैं। वह सागार और अनगार के भेद से दो प्रकार का है। सागार का चारित्र देश-चारित्र तथा अनगार का चारित्र सर्वचारित्र कहलाता है। जिनके चित्त सद्विचारों से युक्त हैं, वे ही चारित्र का पालन कर सकते हैं। जिसमें स्वर्ग या मोक्ष किसी को भी प्राप्त कर सकने की योग्यता नहीं है, वह न तो देशचारित्र ही पालन कर सकता है और न सर्वचारित्र ही पाल सकता है। सम्यग्दर्शन से अच्छी गति मिलती है। सम्यग्ज्ञान से संसार में यश फैलता है। सम्यग्चारित्र से सम्मान प्राप्त होता है और तीनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है - सम्यक्त्वात् सुगतिः प्रोक्ता ज्ञानात्कीर्तिदाहृता। वृत्तात्पूजामवाप्नोति त्रयाच्च लभते शिवम् ।। तत्त्वों में रूचि का होना सम्यग्दर्शन है। तत्त्वों का कथन कर सकना सम्यग्ज्ञान है और समस्त क्रियाओं को छोड़कर अत्यन्त उदासीन
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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