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भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन
सव्वण्डुमुहविणिग्गय पुव्वावर दोस रहिद परिसुद्धं । अक्खमणादिणिहणं सुदणाणपमाणं णिद्दिवं । । ज.प. 83 ।। गुरू का स्वरूप
समन्तभद्र ने लिखा है कि जो विषयों की अभिलाषाओं के वशीभूत न हो, आरम्भ तथा परिग्रह रहित हो, ज्ञान, ध्यान तथा तप में अनुरक्त हो - ऐसा प्रशस्त तपस्वी ही सच्चा गुरू हो सकता है
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञानध्यानतपोरक्तः तपस्वी सः प्रशस्यते ।। 10 ।।
- रत्न. श्रा. श्लो. 10 |
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्वारित्ररूप रत्नत्रय के द्वारा जो महान बन चुके हैं उन्हें 'गुरू' कहते हैं। ऐसे गुरू आचार्य, उपाध्याय और साधु-ये तीनों परमेष्ठी हैं।
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'गुरू' का अर्थ है, जो तारे - भवसागर से पार लगाये । निश्चय से अपना आत्मा ही स्वयं को तारता है, अर्हन्तादि उसमें निमित्त हैं । इस तरह उपादान कारण की दृष्टि से अपना शुद्ध आत्मा ही गुरू है, क्योंकि वही सदा मोक्ष की अभिलाषा करता है, मोक्षसुख का ज्ञान कराता है तथा उसकी प्राप्ति में अपने को लगाता है । यह आत्मा अपने ही द्वारा संसार या मोक्ष को प्राप्त करता है । अतएव स्वयं ही अपना शत्रु और गुरू भी है । कहा भी है
स्वस्मिन् सदाभिलाषित्वादभीष्ट - ज्ञापकत्वतः । स्वयं हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरूरात्मनः । । 34 । ।
आत्माऽऽत्मना भवं मोक्षमात्मनः कुरुते यतः । अतो रिपुर्गुरूश्चायमात्मैव स्फुटमात्मनः ।।
सच्चे
- इष्टोपदेश
- ज्ञानार्णव 32/81 ।
को सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी,