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________________ श्रवणधर्म में तीर्थकर परम्परा और भ. महावीर तथा महावीर चरित-साहित्य...... 3 मानव-ज्ञान की पूर्ण प्रतिष्ठा नहीं हुई है, अपितु श्रमण-संस्कृति में भी वीतरागी, हितोपदेशी और सर्वज्ञ तीर्थंकर की प्रतिष्ठा कर मानवता को महत्त्व दिया गया है। तीर्थकर: व्युत्पत्ति “तीर्थं" का अर्थ 'पुल' या 'सेतु' है। कितनी ही बड़ी नदी क्यों न हो, सेतु द्वारा निर्बल से निर्बल व्यक्ति भी उसे सुगमता से पार कर सकता है। तीर्थकरों ने संसार-रूपी सरिता को पार करने के लिये धर्म-शासन रूपी सेतु का निर्माण किया है। 'तीर्थ'-शब्द 'घाट' अर्थ में भी व्यवहृत है। जो घाट के निर्माता हैं, वे तीर्थकर कहलाते हैं। सरिता को पार करने के लिये घाट की भी सार्वजनीन उपयोगिता स्पष्ट है। आगम बतलाता है कि अतीत के अनन्तकाल में अनन्त तीर्थंकर हुये हैं। वर्तमान में ऋषभादि चतुर्विंशति तीर्थकर हुये हैं और भविष्य में भी चतुर्विंशति तीर्थकर होंगे। प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान डॉ. राधाकृष्णन् का निम्नलिखित कथन उल्लेखनीय है, "ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा होती थी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पार्श्वनाथ से भी पहले प्रचलित था'। “यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीनों तीर्थंकरों के नामों का निर्देश है। भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे। विश्व के प्राचीन वाड्.मय में ऋषभदेव का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसकी एक ऋचा में आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का उल्लेख आया है। 'ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम् । हंतारं शत्रुणां कृधि विराजं गोपितं गवाम् ।।" - ऋग्वेद 10,166,11 यजुर्वेद और अथर्ववेद में भी ऋषभदेव का उल्लेख है। श्रीमद् भागवत में विष्णु के चौबीस अवतारों में एक ऋषभावतार भी स्वीकृत किया गया है, जिससे आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव की ऐतिहासिकता भी सिद्ध होती है।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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