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________________ 236 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन वर्धमान ने पिता के इस प्रस्ताव का अनुमोदन नहीं किया। पिता ने पुनः कहा- हे आत्मज! बिना कारण के ही क्या राजकुल में उत्पन्न यह युवातीर्थ (युवावस्थारूपी तीर्थ) युवती रहित ही रहेगा ? अविवाहित रहने का तुम्हें कोई कारण तो बतलाना चहिए। पिता के (पुत्र-प्रेम से उत्पन्न) इस मोह को देखकर महामना वर्धमान ने पुनः विनय के साथ इस प्रकार कहा - करत्रमेकतस्तात! परत्र निखिलं जगत्। प्रेमपात्रं किमित्यत्र कर्त्तव्यं ब्रूहि धीमता।। 28 ।।' हृषीकाणि समस्तानि माद्यन्ति प्रमदाऽऽश्रयात् । नो चेत्पुनरसन्तीव सन्ति यानि तु देहिनः।। 31 ।। -वीरो.सर्ग "हे तात्! एक ओर कलत्र (स्त्री) है और दूसरी ओर यह सर्व दुःखी जगत है। हे श्रीमन्! इनमें से किसे अपना प्रेमपात्र बनाऊँ ? मेरा क्या कर्त्तव्य है ? इसे आप ही बतलाइये। प्रमदा (स्त्री) के आश्रय से ये समस्त इन्द्रियां मद को प्राप्त होती हैं। यदि स्त्री का सम्पर्क न हो तो फिर ये देहधारी के होती हुई भी नहीं होती हुई सी रहती हैं। " " हे तात्! सच तो यह है कि जो इन्द्रियों का दास है, वह सर्व जगत का दास है। किन्तु इन्द्रियों को जीत करके ही मनुष्य जगज्जेतृत्व को प्राप्त कर सकता है। जो पुरूष ब्रह्मचारी रहता है, उसके देवता भी शीघ्र वश में हो जाते हैं, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है ? इसीलिये ब्रह्मचर्य सर्व व्रचातरणों में श्रेष्ठ माना गया है। इसलिए हे पिता! हमारा यह दृढ़ विचार है कि मनुष्य-जन्म को धारण करता हुआ मैं स्त्री के वशंगत नहीं होऊँगा।” जैसे - इन्द्रियाणां तु यो दासः स दासो जगतां भवेत् । इन्द्रियाणि विजित्यैव जगज्जेतृत्वमाप्नुयात् ।। 37 ।। सद्योऽपि वशमायान्ति देवाः किमुत मानवाः । यतस्तद् ब्रह्मचर्य हि व्रताचारेषु सम्मतम् ।। 38 ।।
SR No.006158
Book TitleViroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamini Jain
PublisherBhagwan Rushabhdev Granthmala
Publication Year2005
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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