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वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन देवी ने सोने के लिए उत्तम पुष्पों द्वारा शैया को अच्छी तरह सजाया। माता के उस पर लेट जाने पर कुछ देवियाँ उनके चरणों को दबाने लगीं।
___ माता अपने मुख में श्री को, नेत्रों में ही को, मन में धृति को, दोनों उरोजों (कुचों) में कीर्ति को , कार्य सम्पादन में बुद्धि को, और धर्म-कार्य में लक्ष्मी को धारण करती हुई गृहाश्रम में शोभित हुई। श्रियं मुखेऽम्बा ह्रियमत्र नेत्रयोऽतिं स्वके कीर्तिमुरोजराजयोः । बुद्धिं विधाने च रमा बृषक्रमे समादधाना विबभौ गृहाश्रमो।। 40।।
-वीरो.सर्ग.5। माता की सेवार्थ आई श्री ही आदि देवियों को मानों माता ने उक्त प्रकार से आत्मसात् कर लिया। राजा सिद्धार्थ व वर्धमान संवाद
महाकवि आचार्यश्री ज्ञानसागर ने वीरोदय के अष्टमसर्ग में राजा सिद्धार्थ व वर्धमान के बीच हुए संवाद को निम्न प्रकार से चित्रित किया है -
बालक वर्धमान धीरे-धीरे युवावस्था की ओर अग्रसर हुए। पुत्र को युवावस्था में देखकर पिता सिद्धार्थ ने उन्हें विवाह-योग्य कन्या देखने को कहा। पिता के इस विवाह-प्रस्ताव को सुनकर वर्धमान बोले – “हे तात! यह आप क्या कहते हो? लोक की ऐसी दारूण स्थिति में, मैं क्या सदारता अर्थात् करपत्रता या करोंतपना अंगीकार करूँ ? जैसे लकड़ी करोंत से कटकर खंड-खंड हो जाती है, वैसे ही क्या मैं भी सदारता को प्राप्त करके उसी प्रकार की दशा को प्राप्त होऊँ।" यथा -
सुतरूपस्थितिं दृष्टवा तदा रामोपयोगीनीम् । कन्या समितिमन्वेष्टुं प्रचक्राम प्रभोःपिता।। 22 || प्रभुराह निशम्येदं तात! तावत्किमुद्यते। दारूणेत्युदिते लोके किमिष्टेऽहं सदारताम् ।। 23 ।।
-वीरो.सर्ग.8।