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वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन समान आती हुई रानी को देखकर पाप-रहित एवम् पुण्य-स्वरूप अपने आसन के अर्ध-भाग पर बैठाया। रानी प्रियकारिणी व राजा सिद्धार्थ का संवाद
रानी प्रियकारिणी ने महाराज सिद्धार्थ के सन्मुख उचित अवसर प्राप्त कर स्वप्नों का वृत्तान्त कहाउद्योतयत्युदित दन्तविशुद्धरोचि-रंशैर्नृपस्य कलकुण्डलकल्पशोचिः। चिक्षेप चन्द्रवदना समयानुसारं तत्कर्णयोरिति वचोऽमृतमप्युदारम् ।। 33 ।।
___ -वीरो.सर्ग.4। प्रियकारिणी द्वारा विशाल अर्थ को कहने वाली तत्त्व प्रतिपादक वाणी को सुनकर हर्ष से रोमांचित प्रफुल्लित कमल के समान विकसित नेत्रवाले राजा सिद्धार्थ अपनी निर्दोष वाणी से उत्तम मंगल स्वरूप अर्थ प्रतिपादक वचनों को इस प्रकार कहने लगे -
"हे कृशोदरि, तुमने सोते समय जो अनुपम स्वप्नावली देखी है, उससे तुम अत्यन्त सौभाग्यशाली प्रतिभासित होती हो। हे प्रसन्नमुखि, हे कल्याणशालिनी, मेरे मुख से उनका अति सुन्दर फल सुनो।" त्वं तावदीक्षितवती शययेऽप्यनन्यां, स्वप्नावलिं त्वनुदरि प्रतिभासि धन्या। भो भो प्रसन्नवदने फलितं तथाऽस्याः, कल्याणिनीह श्रृणु मंजुतमं ममाऽऽस्यात् ।। 38 ।।
-वीरो.सर्ग.41 " हे सुभगे, तुम आप्तमीमांसा के समान प्रतीत हो रही हो। जैसे समन्तभद्र स्वामी के द्वारा की गई आप्त की मीमांसा अकलंकदेव-द्वारा अलंकृत हुई है, उसी प्रकार तुम भी निर्मल आभूषणों को धारण करती हो। आत्ममीमांसा सन्नय से (सप्तभंगी रूप स्याद्वाद न्याय के द्वारा) निर्दोष अर्थ को प्रकट करती है और तुम अपनी सुन्दर चेष्टा से निर्दोष तीर्थंकर देव के आगमन को प्रकट कर रही हो ।'
अकलंकालंकारा सुभगे देवागमार्थमनवद्यम् । गमयन्ती सन्नयतः किलाऽऽप्तमीमांसिताख्या वा।। 39।।
-वीरो.सर्ग.41