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वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन
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यहाँ गौतम इन्द्रभूति, अद्भुतरस के आश्रय हैं। भगवान महावीर आलम्बन विभाव हैं। उनकी दिव्य विभूति उद्दीपन विभाव है। भगवान की विभूति का कारण जानने की जिज्ञासा अनुभाव है। वितर्क, आवेग इत्यादि व्यभिचारी भाव हैं। 3. वात्सल्य रस
कुछ आचार्यों ने स्फुट चमत्कारी होने के कारण वात्सल्यरस को भी रस मान लिया है -
'स्थायी वत्सलताः स्नेहः' 126 वात्सल्य रस का स्थायीभाव वत्सलता है। वात्सल्यरस की देवता, लोक-मातायें मानी गई हैं, जो शैयादि षोडश मात्रिका रूप में प्रसिद्ध हैं। वर्ण कमल-कोश के समान कान्त अर्थात् शुभपीत के सदृश हैं, क्योंकि लोकमातायें इसी रूप की हैं। पुत्र, अनुज, व अनुज-पुत्र आदि आलम्बन-विभाव हैं। उनकी चेष्टायें क्रीड़ा, कूदना, हास्य, विद्या, शास्त्र-दिक-ज्ञान, शूरता, अभ्युदय, धनोपार्जनादि एवं सेवादि उद्दीपन-विभाव हैं। आलिंगन, अंग-स्पर्श, सिर चुम्बन, देखना, रोमांच, आनन्द्राश्रु, हर्षाश्रु, वस्त्राभूषण दानादि अनुभाव कहे गये हैं। अनिष्ट की शंका, हर्ष, गर्व, धैर्यादि इसके व्यभिचारी-भाव हैं।
___ वीरोदय में वात्सल्यरस का वर्णन दो स्थलों पर मिलता है। एक स्थान वह है जहाँ रानी प्रियकारिणी सोलह स्वप्न-दर्शन का ज्ञान राजा सिद्धार्थ को कराती हैं। राजा प्रसन्न होकर कहते हैं कि ऐसे स्वप्न पुत्रोत्पत्ति से पूर्व देखे जाते हैं। अतः वह एक लोक-विश्रुत पुत्र को जन्म देगी। स्वप्न का अर्थ जानकर रानी प्रियकारिणी भी अत्यन्त प्रसन्न होती है। चतुर्थ अध्याय में (37 से 62 तक) राजा सिद्धार्थ व रानी प्रियकारिणी का वार्तालाप है। यहाँ उदाहरणार्थ एक श्लोक प्रस्तुत है।
अंकप्राप्तसुतेव कण्टकितनुहर्षाश्रुसम्वाहिनी। जाता यत्सुतमात्र एव सुखदस्तीर्थेश्वरे किम्पुनः।। 62 ।।
__-वीरो.सर्ग.4।