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वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन
विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभावों के संयोग से रस की निष्पत्ति
होती है।
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भारतीय काव्य - शास्त्र में रस का महत्त्व बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है, क्योंकि उपनिषदों में 'रसो वयसः' कहकर रस को ब्रह्मानन्द सहोदर या अलौकिक आनन्द के रूप में संकेत किया गया है। महर्षि बाल्मीकि ने बाल्मीकि रामायण में कहा है
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती सभाः ।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ।।
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ऐसा कहकर रस का संकेत दिया है। भरत ने नाट्य - शास्त्र में रस का विवेचन बृहद् रूप में किया है । इसीलिए भरत मुनि को रस का आद्य आचार्य माना गया है। उन्होंने आस्वाद को ही रस माना है। 'आस्वादेव रसः' ।
आचार्य मम्मट ने 'रसस्यते इति रसः' "जिसका आस्वादन किया जा सके वह रस है ।" ऐसा मानते हुए लोक में जो कारण, कार्य और सहकारी कारण होते हैं वे ही जब नाटक और काव्य में रति आदि स्थायी भाव के होते हैं, तब उन्हें विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव कहते हैं तथा उनसे व्यक्त होने वाला स्थाई भाव ही रस कहलाता है । साहित्य दर्पणकार विश्वनाथ ने रस का लक्षण इस प्रकार कहा है -
विभावेनानुभावेन व्यक्तः सञ्चारिणा तथा ।
रसतामेति रत्यादिः स्थायिभावः सचेतसाम् ।। 3 / 1 |
सहृदय के हृदय में वासनारूप में स्थित रति आदि स्थायी भाव काव्य में वर्णित विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारी भावों द्वारा उद्बुद्ध होकर आनन्दात्मक अनुभूति में परिणत हो जाता है उसे ही 'रस' कहते हैं । अर्थात् विभावादि के द्वारा व्यक्त हुआ सहृदय सामाजिक का स्थायीभाव ही आनन्दात्मक अनुभूति में परिणत हो जाने के कारण रस कहलाता है। इस प्रकार काव्यगत और नाट्यगत विभावादि तथा सामाजिक का स्थायीभाव रस सामग्री है। सामाजिक का स्थायी भाव रस का उपादान कारण है,